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४, २, ९-१०, १]
वेयणमहाहियारे वेयणसामित्तविहाणं
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सिया जीवाणं च णोजीवाणं च ॥९॥ कथंचित् वह बहुत जीवों और बहुत नोजीवोंके होती है ॥ ९॥ एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥१०॥ इसी प्रकार नैगम और व्यवहार नयकी अपेक्षा शेष सात कोंकी वेदनाके सम्बधमें भी चाहिये ॥१०॥ संगहणयस्स णाणावरणीयवेयणा जीवस्स वा ॥ ११ ॥ शुद्ध संग्रह नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी वेदना एक जीवके होती है ॥ ११ ॥ जीवाणं वा ॥१२॥ अशुद्ध संग्रह नयकी अपेक्षा वह बहुत जीवोंके होती है ॥ १२॥ एवं सत्तणं कम्माणं ॥ १३ ॥
इसी प्रकार शुद्ध और अशुद्ध संग्रह नयकी अपेक्षा शेष सात कर्मोंकी वेदनाके विषयमें भी जानना चाहिये ॥ १३ ॥
सदुजुसुदाणं णाणावरणीयवेयणा जीवस्स ॥ १४ ॥ शब्द और ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी वेदना एक जीवके होती है ॥१४॥ एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥१५॥
इसी प्रकार इन दोनों नयोंकी अपेक्षा शेष सात कोंकी वेदनाके स्वामित्वको समझना चाहिये ॥ १५॥
॥ वेदनस्वामित्त्व विधान समाप्त हुआ ॥९॥
१०. वेयणवेयणविहाणं वेयणवेयणविहाणे त्ति ॥१॥ अब वेदनवेदनविधान अनुयोगद्वार अधिकारप्राप्त है ॥ १ ॥
'वेद्यते इति वेदना' अर्थात् जिसका वेदन होता है वह वेदना है, इस निरुक्तिके अनुसार यहां प्रथम वेदना पदसे आठ प्रकारके कर्म पुद्गलस्कन्धकी विवक्षा है तथा द्वितीय वेदना शब्दका अर्थ 'वेदनं वेदना' इस निरुक्तिके अनुसार है। इस प्रकार आठ प्रकारके कर्म पुद्गलस्कन्धोंका जो अनुभवन होता है उसका विधान (प्ररूपणा) करनेके कारण इस अनुयोगद्वारका वेदन-वेदन-विधान यह सार्थक नाम है ।
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