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यणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ ४, २, ४, ३९
जो जीव पूर्वकोटि प्रमाण आयुसे युक्त होकर परभव सम्बन्धी पूर्वकोटि प्रमाण आयुको जलचर जीवोंमें बांधता हुआ दीर्घ आयुबन्धकालमें तत्प्रायोग्य संक्लेशके साथ उत्कृष्ट योग में बांधता है ॥ जिस जीवके द्रव्यकी अपेक्षा आयु कर्मकी उत्कृष्ट वेदना सम्भव है उसकी यहां तीन त्रिशेषतायें दिखलायी गई है-- उनमें प्रथम विशेषता यह है कि उसकी भुज्यमान आयु पूर्वकोटि प्रमाण होनी चाहिये । इसका कारण यह है कि जो पूर्वकोटिके त्रिभागको आबाधा करके परभव सम्बन्धी आयुको बांधा करते हैं उन्हींके आयुका उत्कृष्ट बन्धककाल सम्भव है, अन्य जीवोंके बह सम्भव नहीं है । सो वह पूर्वकोटिके त्रिभाग प्रमाण आबाधा पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले जीवके ही हो सकती है, अन्यके नहीं हो सकती हैं ।
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दूसरी विशेषता उसमें यह होती है कि वह परभवकी आयुको बांधते समय जलचर की ही आयुको बांधता है और उसे भी पूर्वकोटि प्रमाण में बांधता है । सूत्रमें जो 'परभव सम्बन्धी' ऐसा कहा है उससे यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिये कि जिस प्रकार ज्ञानावरणादि अन्य कर्मोंका उदय बन्धावलीके पश्चात् बन्धभव में ही प्रारम्भ होता उस प्रकार आयु कर्मका उदय बन्धभवमें सम्भव नहीं हैं, किन्तु उसका उदय परभवमें ही होता है। जलचर जीवों में आयुके बांधनेका कारण यह है कि उनमें विवेकका अभाव होनेसे संक्लेश कम होता है और इससे उनके अधिक द्रव्यकी निर्जरा नहीं होती ।
तीसरी विशेषता उसकी यह है कि वह उपर्युक्त परभव सम्बन्धी आयुको दीर्घ आयुबन्धक 'उसके योग्य संक्लेशके साथ
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कालमें उसके योग्य संक्लेशके साथ उत्कृष्ट योग में बांधता है कहने का अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार शेष
कर्म उत्कृष्ट जाते हैं उस प्रकार आयु कर्म उत्कृष्ट संक्लेशके साथ नहीं योग्य मध्यम संक्लेशके साथ ही बांधा जाता है ।
विशुद्धि और उत्कृष्ट संक्लेश के साथ बांधा जाता है, किन्तु वह उसके
जोगजवमज्झस्सुवरिमं तो मुहुत्तद्धमच्छिदो ॥ ३७ ॥ योगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल तक रहा || ३७ ॥
चरिमे जीवगुणहाणिट्ठाणंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिदो || ३८ ॥ अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तरमें आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र काल तक रहा ||३८|| कमेण कालगदसमाणो पुव्वकोडाउएस जलचरेसु उबवण्णो ।। ३९ ।।
फिर क्रमसे कालको प्राप्त होकर पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले जलचर जीवोंमें उत्पन्न हुआ | परभव सम्बन्धी आयुके बांध लेनेपर तत्पश्चात् भुज्यमान आयुका कदलीघात नहीं होता, किन्तु उसका वेदन यथास्वरूपसे ही होता है; इस अभिप्रायको प्रगट करनेके लिये यहां सूत्रमें ' क्रमसे कालको प्राप्त होकर ' ऐसा कहा गया है। इसी प्रकार बांधी गई उस आयुका अपकर्षणस्वरूपसे घात न करके वहां उत्पन्न हुआ, इस भावको प्रगट करने के लिये सूत्र में 'पूर्वकोटि प्रमाण
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