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४, २, ६, १०१]
वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे णिसेयपरूवणा
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णिसेयपरूवणदाए तत्थ इमाणि दुबे अणियोगद्दाराणि अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा ॥ १०१॥
निषेकपरूपणामें ये दो अनुयोगद्वार हैं- अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा ॥ १०१॥
अणंतरोवणिधाए पंचिंदियाणं सण्णीणं मिच्छाइट्ठीणं पज्जत्तयाणं णाणावरणीयदंसणावरणीय-वेयणीय-अंतराइयाणं तिण्णिवाससहस्साणि आबाधं मोतूण जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुगं, जं विदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, जं तदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव उक्कस्सेण तीसं . सागरोवमकोडाकोडियो त्ति ॥ १०२॥
___ अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय, संज्ञी, मिथ्यादृष्टि पर्याप्तक जीवोंके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय इन चार कर्मोंकी तीन हजार वर्षप्रमाण आबाधाको छोड़कर जो प्रदेशाग्र प्रथम समयमें निषिक्त है, वह बहुत है, जो प्रदेशाग्र द्वितीय समयमें निषिक्त है वह उससे विशेष हीन है, जो प्रदेशाग्र तृतीय समयमें निषिक्त है वह उससे विशेष हीन है, इस प्रकार वह उत्कर्षसे तीस कोडाकोड़ी सागरोपम तक उत्तरोत्तर विशेष हीन विशेष हीन होता गया है ॥१०२॥
जिन जीवोंने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय इन चार कर्मोकी तीस कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है उन्हींके उसका आबाधाकाल तीस हजार वर्ष प्रमाण होता है; उससे कम स्थितिको बांधनेवाले जीवोंके वह सम्भव नहीं है । इसी लिये यहां ‘पंचेन्द्रिय' पदसे एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रियोंका, ‘संज्ञी' से असंज्ञियोंका, 'मिथ्यादृष्टि' से सम्यग्दृष्टियोंका और ‘पर्याप्त' पदसे अपर्याप्त जीवोंका निषेध प्रगट किया गया है; क्यों कि, उनके उनका उक्त उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्भव नहीं है । उनकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवाले जीवोंके उक्त आबाधाकालमें इन चार कर्मोंके प्रदेशोंका निक्षेप (निषेकरचना) सम्भव नहीं है, यह अभिप्राय सूत्रमें 'आबाधा' के ग्रहणसे सूचित किया गया है।
पंचिंदियाणं सण्णीण मिच्छाइट्ठीणं पज्जत्तयाणं मोहणीयस्स सत्तवाससहस्साणि आवाहं मोत्तूण जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुअं, जं बिदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, जं तदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव उक्कस्सेण सत्तरिसागरोवमकोडाकोडि त्ति ॥१०३ ॥
पंचेन्द्रिय, संज्ञी, मिथ्यादृष्टि एवं पर्याप्तक जीवोंके मोहनीय कर्मकी सात हजार वर्ष प्रमाण आबाधाको छोड़कर जो प्रदेशाग्र प्रथम समयमें निषिक्त है वह बहुत है, जो प्रदेशाग्र द्वितीय समयमें निषिक्त है वह उससे विशेष हीन है, जो प्रदेशाग्र तृतीय समयमें निषिक्त है वह उससे हीन है; इस प्रकार वह उत्कर्षसे सत्तर कोडाकोडि सागरोपम तक विशेष हीन होता गया है ॥
यहां पंचेन्द्रिय आदि पदोंके ग्रहणका अभिप्राय पूर्वके ही समान समझना चाहिये ।
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