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४, २, ६, ११६ ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे आबाधाकुंडयपरूवणा
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अभिप्राय यह है कि असंज्ञी पंचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, और द्वीन्द्रिय; इन अपर्याप्त जीवों के आयुको छोड़कर शेष सात कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति क्रमसे पल्योपमके संख्यातवें भागसे हीन एक हजार, एक सौ पचास और पच्चीस सागरोपमों सात भागों में से क्रमशः तीन, सात और दो भाग प्रमाण तथा बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त व अपर्याप्त जीवोंके उनकी उत्कृष्ट स्थिति पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन एक सागरोपमा उक्त सात भागों में तीन, सात और दो भाग मात्र बांधती है । उनकी अन्तर्मुहूर्त मात्र आबाबाको छोड़कर शेष स्थिति तक निषेक रचना होती है ।
परंपरोवणिधाए पंचिंदियाणं सण्णीणमसण्णीणं पज्जत्तयाणं अट्ठणं कम्माणं जं पढमसमए पदेसग्गं तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण दुगुणहीणा, एवं दुगुणहीणा दुगुणा जाव उक्कस्सिया ट्ठिदीति ॥ १११ ॥
परम्परोपनिधाकी अपेक्षा संज्ञी व असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके आठ कर्मोंका जो प्रथम समय में प्रदेशाग्र है उससे वह पल्योपमके असंख्यातवें भाग जाकर दुगुणाहीन हुआ है, इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक वह दुगुणा हीन दुगुणा हीन होता चला गया है ॥ १११ ॥
एयपदेस गुणहाणिट्ठाणंतरं असंखेज्जाणि पलिदोवमवग्गमूलाणि ॥ ११२ ॥ एक प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूल प्रमाण है ॥ ११२ ॥ णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेज्जदिभागो ॥११३॥ नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर पल्योपमके प्रथम वर्गमूलके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं | णाणापदेसगुणहाणिट्ठाणंतराणि थोवाणि ।। ११४॥
नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर स्तोक हैं ॥ ११४ ॥
एयपदेगुणहाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं ।। ११५ ।।
उनसे एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर असंख्यातगुणा है ॥ ११५ ॥
पंचिंदियाणं सण्णीणमसण्णीणमपज्जत्तयाणं चउरिंदिय-तीइंदिय- बीइंदिय- एइंदियबादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्तयाणं सत्तण्णं कम्माणमाउववज्जाणं जं पढमसमए पदेसग्गं तदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं गंतूण दुगुणहीणा, एवं दुगुणहीणा दुगुणहीणा जाव उक्कस्सिया द्विदिति ॥ ११६ ॥
संज्ञी व असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय तथा बादर व सूक्ष्म एकेन्द्रिय इन पर्याप्तक अपर्याप्तक जीवोंके आयुको छोड़कर शेष सात कर्मोंका जो प्रदेशाग्र प्रथम समयमें है उससे पल्योंपमके असंख्यातवें भाग जाकर वह दुगुणा हीन हुआ है, इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक वह दुगुणा दुगुणा हीन होता गया है ॥ ११६ ॥
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