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६०० छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ६, १६१ एयमाबाहाकंदयमसंखेज्जगुणं ॥ १६१ ॥ एक आबाधाकाण्डक असंख्यातगुणा है ॥ १६१ ।। ठिदिबंधट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि ॥ १६२ ॥ स्थितिबन्धस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ १६२ ॥ जहण्णओ द्विदिवंधो असंखेज्जगुणो ॥ १६३ ॥ जघन्य स्थितिबन्ध असंख्यातगुणा है ।। १६३ ॥ उक्कस्सओ द्विदिबंधो विसेसाहिओ ॥ १६४ ॥ उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ १६४ ॥ अल्पबहुत्व समाप्त हुआ ॥
कालविहाणे बिदिया चूलिया ठिदिबंधज्झवसाणपरूवणदाए तत्थ इमाणि तिण्णि आणिओगद्दाराणि जीवसमुदाहारो पडियसमुदाहारो डिदिसमुदाहारो त्ति ॥ १६५ ॥
अब स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानप्ररूपणा अधिकारप्राप्त है। उसमें ये तीन अनुयोगद्वार हैं- जीवसमुदाहार, प्रकृतिसमुदाहार और स्थितिसमुदाहार ।। १६५ ॥
जीवसमुदाहारे त्ति जे ते णाणावरणीयस्स बंधा जीवा ते दुविहा सादबंधा चेव असादबंधा चेव ॥ १६६ ॥
उनमें जीवसमुदाहार प्रकृत है। तदनुसार जो ज्ञानावरणीयके बन्धक जीव है वे दो प्रकार है- सातबन्धक और असातबन्धक ॥ १६६ ॥
तत्थ जे ते सादबंधा जीवा ते तिविहा चउट्ठाणबंधा तिट्ठाणबंधा बिट्ठाणबंधा ॥
उनमें जो सातबन्धक जीव हैं वे तीन प्रकारके हैं- चतुःस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और द्विस्थानबन्धक ॥ १६७ ॥
___सातावेदनीयका अनुभाग गुड, खांड, शक्कर और अमृतके स्वरूपसे चार प्रकारका है। उनमें जो जिस स्थानमें चारों प्रकारका अनुभाग बन्ध पाया जाता है वह चतुःस्थान अनुभाग तथा उसके बन्धक जीव चतुःस्थान बन्धक कहलाते हैं। इसी प्रकार त्रिस्थान और द्विस्थानबन्धकोका भी स्वरूप समझना चाहिये ।
असादबंधा जीवा तिविहा-बिट्ठाणबंधा तिट्ठाणबंधा चउट्ठाणबंधा ति ॥१६८॥
असातबन्धक जीव तीन प्रकारके हैं- द्विस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और चतु:स्थानबन्धक ॥ १६८॥
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