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४, २, ६, १७९] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ट्ठिदिबंधज्झवसाणप्ररूवणा
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..असातावेदनीयका अनुभाग निंब, कांजीर, विष और हालाहाल स्वरूपसे चार प्रकारका है। उसमेंसे जिस अनुभागबन्धमें दो स्थान संभव हो उसका नाम द्विस्थान और उसके बन्धक जीवोंका नाम द्विस्थान बन्धक है। इसी प्रकार त्रिस्थान बन्धक और चतुःस्थान बन्धकोंका भी स्वरूप समझना चाहिये।
सव्वविसुद्धा सादस्स चउट्ठाणबंधा जीवा ॥१६९ ॥ सातावेदनीयके चतुःस्थानबन्धक जीव सब (द्विस्थान और त्रिस्थानबन्धकों) से विशुद्ध हैं।
तीव्र कषायका अभाव होकर जो उसकी मन्दता होती है उसका नाम विशुद्धि है। अथवा जघन्य स्थिति बन्धके कारणभूत जीवपरिणामको विशुद्धि समझना चाहिये ।
तिट्ठाणबंधा जीवा संकलिट्ठदरा ॥ १७० ॥ उक्त चतुःस्थान बन्धकोंकी अपेक्षा त्रिस्थान बन्धक जीव संक्लिष्टतर हैं ॥ १७० ॥ बिट्ठाणबंधा जीवा संकिलिट्ठदरा ॥ १७१ ॥ उनसे द्विस्थान बन्धक जीव संक्लिष्टतर हैं ॥ १७१ ॥ सव्वविसुद्धा असादस्स बिट्ठाणबंधा जीवा ॥ १७२ ॥ असातावेदनीयके द्विस्थानबन्धक जीव सबसे विशुद्ध हैं ।। १७२ ॥ तिट्ठाणबंधा जीवा संकिलिट्ठदरा ॥ १७३ ॥ . त्रिस्थानबन्धक जीव उनकी अपेक्षा संक्लिष्टतर हैं ॥ १७३ ॥ चउट्ठाणबंधा जीवा संकलिट्ठदरा ॥ १७४ ॥ उनसे चतुःस्थानबन्धक जीव संक्लिष्टतर हैं ।। १७४ ॥ सादस्स चउट्ठाणबंधा जीवा णाणावरणीयस्स जहणियं द्विदिं बंधति ॥ १७५ ॥ सातावेदनीयके चतुःस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरणीयकी स्थितिको बांधते हैं ॥ १७५ ॥ सादस्स तिट्ठाणबंधा जीवा णाणावरणीयस्स अजहण्ण-अणुक्कस्सियं द्विदि बंधति ॥ साताके त्रिस्थानबन्धक जीव ज्ञानावरणीयकी अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थितिको बांधते है ॥१७६॥ सादस्स बिट्टाणबंधा जीवा सादस्स चेव उक्कस्सियं द्विदिं बंधंति ॥ १७७॥ साताके द्विस्थानबन्धक जीव सातावेदनीयकी ही उत्कृष्ट स्थितिको बांधते हैं ॥ १७७ ॥ असादस्स बेट्ठाणबंधा जीवा सत्थाणेण णाणावरणीयस्स जहणियं द्विदि बंधति ॥
असातावेदनीयके द्विस्थानबन्धक जीव स्वस्थानसे ज्ञानावरणीयकी जघन्य स्थितिको बांधते हैं ॥ १७८ ॥
असादस्स तिट्ठाणबंधा जीवा णाणावरणीयस्स अजहण्ण-अणुक्कस्सियं द्विदि बंधंति ॥ १७९॥ छ. ७६
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