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४, २, ७, १९ ]
aruमहाहियारे वेयणभावविहाणे सामित्तं
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अभिप्राय यह है कि जो सूक्ष्मसाम्पराय संयत सातावेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागको बांधकर क्षीणकषाय, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली गुणस्थानोंको प्राप्त हुआ है उसके भी वेदनीयकी वेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है । सूत्रमें अयोगिकेवलीका ग्रहण द्वितीय ' वा ' शब्दसे समझना चाहिये ।
तव्वदिरित्तमणुक्कस्सा ।। १५ ।।
उपर्युक्त उत्कृष्ट वेदनासे भिन्न उसकी अनुत्कृष्ट वेदना है ।। १५ ।।
एवं णामा - गोदाणं ॥ १६ ॥
जिस प्रकार वेदनीयकी उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट भाववेदनाओंकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार नाम व गोत्र कर्मोंकी भी उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट भाववेदनाओंकी प्ररूपणा जानना चाहिये || इसका कारण यह है कि यशकीर्ति नामकर्म और उच्चगोत्रके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध उक्त सूक्ष्मसाम्पराय क्षपकके अन्तिम समयमें पाया जाता है ।
सामित्ते उक्कस्सपदे आउववेयणा भावदो उक्कस्सिया कस्स ? ।। १७॥ स्वामित्व से उत्कृष्ट पदमें आयुकर्मकी वेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट किसके होती है ? ॥ अण्णदरेण अप्पमत्त संजदेण सागार - जागारतप्पाओग्गविसुद्वेण बद्धल्लयं जस्स तं
संतकम्ममत्थि ॥ १८ ॥
साकार उपयोगसे संयुक्त, जागृत और उसके योग्य विशुद्धिसे सहित जिस अन्यतर अप्रमत्तसंयत के द्वारा आयुकर्मका उत्कृष्ट अनुभाग बांधा गया है उसके तथा जिसके उसका सत्त्व भी है उसके आयुकर्मकी वेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है ॥ १८ ॥
उसके योग्य विशुद्धि से यह अभिप्राय समझना चाहिये कि अतिशय विशुद्धि और अतिशय संक्लेशके द्वारा आयुकर्मके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध नहीं होता है । आयु कर्मके उत्कृष्ट अनुभागका सत्त्व किसके होता है, इसे आगे के सूत्र द्वारा निर्दिष्ट किया जाता है
तं संजदस्स वा अणुत्तरविमाणवासियदेवस्स वा तस्स आउववेयणा भावदो उक्कस्सा ।। १९ ॥
उसके उत्कृष्ट अनुभागका सत्त्व संयतके और अनुत्तरविमानवासी देवके होता है । अतएव उसके आयु कर्मकी वेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है ॥ १९ ॥
'संयत' से यहां अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय इन तीन उपशामकों तथा उपशान्तकषायों और प्रमत्तसंयतोंका ग्रहण करना चाहिये । प्रमत्तसंयतोंमें उस प्रमत्तसंयतके उसके उत्कृष्ट अनुभागका सत्त्व समझना चाहिये जो कि अप्रमत्तसंयत अवस्थामें उसके उत्कृष्ट अनुभागको बांधकर तत्पश्चात् प्रमत्तसंयत गुणस्थानको प्राप्त हुआ 1
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