Book Title: Shatkhandagam
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, 
Publisher: Walchand Devchand Shah Faltan

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Page 751
________________ ६२६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ७, १३९ पयला अणंतगुणा ॥ १३९ ॥ णिद्दा अणंतगुणा ॥१४०॥ पच्चक्खाणावरणीयमाणो अणंतगुणो ॥ १४१॥ कोधो विसेसाहिओ ॥१४२॥ माया विसेसाहिया ॥१४३॥ लोभो विसेसाहिओ ॥ १४४ ॥ उनसे प्रचला अनन्तगुणी है ॥ १३९ ॥ उससे निद्रा अनन्तगुणी है ॥ १४० ॥ उससे प्रत्याख्यानावरणीय मान अनन्तगुणा है ॥ १४१॥ उससे प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध विशेष अधिक है ।। १४२ ॥ उससे प्रत्याख्यानावरणीय माया विशेष अधिक है ॥ १४३ ॥ उससे प्रत्याख्यानावरणीय लोभ विशेष अधिक है ॥ १४४ ॥ अपञ्चक्खाणावरणीयमाणो अणंतगुणो ॥१४५॥ कोधो विसेसाहिओ ॥१४६॥ माया विसेसाहिया ॥ १४७ ॥ लोभो विसेसाहिओ ।। १४८॥ प्रत्याख्यानावरणीय लोभसे अप्रत्याख्यानावरणीय मान अनन्तगुणा है ॥ १४५ ॥ उससे अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध विशेष अधिक है ॥ १४६ ॥ उससे अप्रत्याख्यानावरणीय माया विशेष अधिक है ॥ १४७ ॥ उससे अप्रत्याख्यानावरणीय लोभ विशेष अधिक है ॥ १४८ ॥ णिद्दाणिद्दा अणंतगुणा ॥१४९॥ पयलापयला अणंतगुणा ॥१५०॥ थीणगिद्धी अणंतगुणा ॥१५१।। अणंताणुबंधिमाणो अणंतगुणो ॥१५२॥ कोधो विसेसाहिओ ॥१५३॥ माया विसेसाहिया ॥ १५४ ॥ लोभो विसेसाहिओ ॥ १५५ ॥ अप्रत्याख्यानावरणीय लोभसे निद्रानिद्रा अनन्तगुणी है ॥ १४९ ॥ उससे प्रचलाप्रचला अनन्तगुणी है ॥ १५० ॥ उससे स्त्यानगृद्धि अनन्तगुणी है ॥ १५१ ॥ उससे अनन्तानुबन्धी मान अनन्तगुणा है ॥ १५२ ॥ उससे अनन्तानुबन्धी क्रोध विशेष अधिक है ॥ १५३ ॥ उससे अनन्तानुबन्धी माया विशेष अधिक है ॥ १५४ ॥ उससे अनन्तानुबन्धी लोभ विशेष अधिक है ॥ मिच्छतमणंतगुणं ॥ १५६ ॥ ओरालियसरीरमणंतगुणं ॥ १५७ ॥ वेउब्वियसरीरमणंतगुणं ॥१५८॥ तिरिक्खाउअमणंतगुणं ॥१५९॥ मणुसाउअमणंतगुणं ॥१६०॥ तेजइयसरीरमणतगुणं ॥ १६१ ॥ कम्मइयसरीरमणतगुणं ॥ १६२ ॥ अनन्तानुबन्धी लोभसे मिथ्यात्व अनन्तगुणा है ॥ १५६ ॥ उससे औदारिकशरीर अनन्तगुणा है ॥ १५७ ॥ उससे वैक्रियिकशरीर अनन्तगुणा है ॥ १५८ ॥ उससे तिर्यगायु अनन्तगुणी है ॥ १५९ ॥ उससे मनुष्यायु अनन्तगुणी है ॥ १६० ॥ उससे तैजसशरीर अनन्तगुणा है ॥ १६१ ॥ उससे कार्मणशरीर अनन्तगुणा है ॥ १६२ ॥ तिरिक्खगदी अणंतगुणा ॥ १६३ ॥ निरयगदी अणंतगुणा ॥ १६४ ॥ मणुसगदी अणंतगुणा ॥ १६५ ॥ देवगदी अणंतगुणा ॥ १६६ ॥ कार्मणशरीरसे तिर्यग्गति अनन्तगुणी है ॥ १६३ ॥ उससे नरकगति अनन्तगुणी है ॥ १६४ ॥ उससे मनुष्यगति अनन्तगुणी है ॥ १६५ ॥ उससे देवगति अनन्तगुणी है ॥ १६६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -

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