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४, २, ६, २४५] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ट्ठिदिबंधज्झवसाणपरूवणा [६०५
द्विस्थानबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं ॥ २३५ ॥ असादस्स बिट्ठाणबंधा जीवा संखेज्जगुणा ।। २३६ ॥ असाता वेदनीयके द्विस्थानबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं ॥ २३६ ॥ चउट्ठाणबंधा जीवा संखेज्जगुणा ॥ २३७ ॥ चतुःस्थानबन्धक जीव संख्यातगुणे है ॥ २३७ ॥ तिट्ठाणबंधा जीवा विसेसाहिया ॥ २३८ ।। त्रिस्थानबन्धक जीव विशेष अधिक है ॥ २३८ ॥ जीव समुदाहार समाप्त हुआ |
पडयिसमुदाहारे त्ति तत्थ इमाणि दुवे अणियोगद्दाराणि पमाणाणुगमो अप्पाबहुए ति ॥ २३९ ॥
अब प्रकृतिसमुदाहारका अधिकार है। उसमें ये दो अनुयोगद्वार हैं- प्रमाणानुगम और अल्पबहुत्त्व ।। २३९ ॥
पमाणाणुगमे णाणावरणीयस्स असंखेज्जा लोगा हिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि ॥
__प्रमाणानुगमके अनुसार ज्ञानावरणीयके असंख्यात लोक प्रमाण स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान हैं ॥ २४० ॥
एवं सत्तणं कम्माणं ॥ २४१ ॥
इसी प्रकार शेष सात कर्मोके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थानोंका प्रमाण जानना चाहिये ॥ २४१ ॥ प्रमाणानुयोगद्वार समाप्त हुआ ।।
अप्पाबहुए त्ति सव्वत्थोवा आउअस्स द्विदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि ॥ २४२ ॥ अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारके अनुसार आयु कर्मके स्थितिबन्धाध्यवसान सबसे स्तोक हैं । णामा-गोदाणं ट्ठिदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि दो वितुल्लाणि असंखेज्जगुणाणि ॥२४३॥ नाम व गोत्रके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान दोनों ही तुल्य व उनसे असंख्यातगुणे हैं ।
णाणावरणीय -दसणावरणीय -वेयणीय-अंतराइयाणं विदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि चत्तारि वि तुल्लाणि असंखेज्जगुणाणि ।। २४४ ॥
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय; इन चारों ही कर्मोके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान तुल्य व उनसे असंख्यातगुणे हैं ॥ २४४ ॥
मोहणीयस्स द्विदिबंधज्झवसाणट्ठाणाणि असंखेज्जगुणाणि ॥ २४५॥ उनसे मोहनीयके स्थितिबन्धाध्यवसानस्थान असंख्यातगुणे हैं ॥ २४५ ॥
प्रकृतिसमुदाहार समाप्त हुआ ॥
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