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४, २, ६, १०८ ] वेयणमहाहियारे णिसेयपरूवणा
[ ५९३ पंचिंदियाणं सण्णीणमसण्णीणं चउरिंदिय-तीइंदिय - बीइंदियाणं बादरेइंदियअपज्जत्तयाणं सुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्ताणमाउअस्स अंतोमुहुत्तमाबाधं मोत्तूण जाव पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुअं, जं बिदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, जं तदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव उक्कस्सेण पुवकोडीयो त्ति ॥ १०७॥
संज्ञी व असंज्ञी पंचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, और बादर एकेन्द्रिय ये अपर्याप्तक तथा सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक व अपर्याप्तक जीवोंके आयु कर्मकी अन्तर्मुहूर्त मात्र आबाधाको छोड़कर प्रथम समयमें जो प्रदेशाग्र निषिक्त है वह बहुत है, द्वितीय समयमें जो प्रदेशाग्र निषिक्त है वह उससे विशेष हीन है । तृतीय समयमें जो प्रदेशाग्र निषिक्त है वह विशेष हीन है; इस प्रकार उत्कर्षसे पूर्वकोटि तक विशेष हीन विशेष हीन होता गया है ॥ १०७ ॥
पंचिंदियाणमसण्णीणं चउरिंदियाणं तीइंदियाणं बीइंदियाणं बादरएइंदियपज्जत्तयाणं सत्तण्णं कम्माणं आउअवज्जाणं अंतोमुहुत्तमावाधं मोत्तूण जं पढमसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं बहुअं, जं बिदियसमए पदेसगं णिसित्तं तं विसेसहीणं, जं तदियसमए पदेसग्गं णिसित्तं तं विसेसहीणं, एवं विसेसहीणं विसेसहीणं जाव उक्कस्सेण सागरोवमसहस्सस्स सागरोवमसदस्स सागरोवमपण्णासाए सागरोवमपणुवीसाए सागरोवमस्स तिण्णि-सत्तभागा सत्त-सत्तभागा बे-सत्तभागा पडिवुण्णा त्ति ॥ १०८ ॥
असंज्ञी पंचेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके आयु कर्मसे रहित सात कर्मोंकी अन्तर्मुहूर्त मात्र आबाधाको छोड़कर प्रथम समयमें जो प्रदेशपिण्ड निषिक्त है वह बहुत है, द्वितीय सययमें जो प्रदेशपिण्ड निषिक्त है वह उससे विशेष हीन है, तृतीय समयमें जो प्रदेशपिण्ड निषिक्त है वह उससे विशेष हीन है; इस प्रकार विशेष हीन विशेष हीन होकर उत्कर्षसे हजार सागरोपमोंके सौ सागरोपमोंके, पचास सागरोपमोंके, पच्चीस सागरोपमके
और एक सागरोपमके चार कर्म, मोहनीय एवं नाम-गोत्र कर्मोके क्रमसे सात भागोंमेंसे तीन भाग (3), सात भाग (ॐ) और दो भागों (३) तक चला गया है ॥ १०८ ॥
__ अभिप्राय यह है कि असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवोंके ज्ञानावरणादि चार कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक हजार सागरोपमोंके सात भागोंमेंसे तीन भाग (१ ० ० ०४३), मोहनीय कर्मका उसके सात भागोंमेंसे सातों भाग (१ ० ० ०४७), और नाम व गोत्र कर्मोका उसके सात भागोंमेंसे दो भाग (१ ० ००४२), प्रमाण होता है । चतुरिन्द्रिय जीवोंके चार कर्मोका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सौ सागरोपमोंके सात भागोंमेंसे तीन भाग (१ ० ०४३), मोहनीयका उसके सात भागों से सातों भाग (१.० ०४७), और नाम व गोत्र कर्मोका उसके सात भागोंमेंसे दो भाग (२००४२), प्रमाण होता है । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके भी यथाक्रमसे पचास, पच्चीस और एक सागरोपमके उक्त भागोंका कर्म जानना चाहिये । छ. ७५
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