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सिरि-भगवंत- पुष्पदंत - भूदबलि-पणीदो
छक्खंडागमो
तस्स उत्थे खंडे - वेयणाए ५. वेयणखेत्तविहाणं
वेणाति तत्थ इमाणि तिण्णि अणिओगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति ॥ अब 'वेदनाक्षेत्रविधान' अनुयोगद्वार अधिकार प्राप्त है । उसमें ये तीन अनुयोगद्वार जानने के योग्य हैं ॥ १ ॥
नाम-स्थापनादिके भेदसे क्षेत्र अनेक प्रकारका है । उसमें यहां नोआगमद्रव्यक्षेत्रस्वरूप लोकाकाश प्रकृत है। 'लोक्यन्ते जीवादयः पदार्थाः यस्मिन् असौ लोकः ' इस निरुक्तिके अनुसार जहांपर जीवादिक पदार्थ देखे जाते हैं- पाये जाते हैं- उसका नाम लोकाकाश है । आठ प्रकारके कर्मद्रव्यका नाम कर्मवेदना है । इस कर्मवेदनाका जो क्षेत्र है वह कर्मवेदनाक्षेत्र कहा जाता है । प्रकृत अनुयोगद्वारमें चूंकि इस कर्मवेदनाके क्षेत्रकी प्ररूपणा की गई है, अतएव इस अनुयोगद्वारको वेदनाक्षेत्रविधान इस नामसे कहा गया है । उसमें ये तीन अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं ।
पदमीमांसा सामित्तं अप्पा बहुए ति ।। २ ।।
वे तीन अनुयोगद्वार ये हैं- पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व ॥ २॥ पदमीमांसा णाणावरणीयवेयणा खेत्तदो किं उक्कस्सा किमणुक्कस्सा किं जहण्णा किमजहण्णा ॥ ३ ॥
पदमीमांसाके आश्रयसे ज्ञानावरणीय कर्मकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट है, क्या अनुत्कृष्ट है, क्या जघन्य है, और क्या अजघन्य है ? ॥ ३ ॥
प्रकृत पदमीमांसा अनुयोगद्वार में चूंकि कर्मवेदना सम्बन्धी क्षेत्रके उत्कृष्ट - अनुष्ट पदों का विचार किया गया है, अतएव उसकी 'पदमीमांसा' यह सार्थक संज्ञा है । इसमें इन पदोंका
विचार करते हुए सर्वप्रथम यहां ज्ञानावरण कर्मवेदनासम्बन्धी क्षेत्रके उन विषय में यह पूछा गया है कि ज्ञानावरणीयकी वेदना क्या उत्कृष्ठ होती है, क्या जघन्य होती है, और क्या अजघन्य होती है ।
इस पृच्छाका उत्तर आगे के सूत्र द्वारा दिया जाता है
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उत्कृष्ट आदि चार पदों के क्या अनुत्कृष्ट होती है,
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