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४, २, ६, १३]
छक्खंडागमे वेयणाखंडं
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है, इसीलिये यहां सूत्रमें पूर्वकोटिके त्रिभागको आबाधा करके देव व नारकियोंकी उत्कृष्ट आयुको बांधनेवाले जीवके बन्धके प्रथम समयमें ही उत्कृष्ट आयुकी वेदना होती है, ऐसा कहा गया है ।
तव्वदिरित्तमणुक्कस्सा ॥ १३ ॥ आयुकर्मकी उस उत्कृष्ट वेदनासे भिन्न उसकी अनुत्कृष्ट वेदना होती है ॥ १३ ॥
इस अनुत्कृष्ट कालवेदनाके स्वामी असंख्यात हैं। जैसे- जिसने पूर्वकोटिके त्रिभागको आबाधा करके तेत्तीस सागरोपम प्रमाण आयुको बांधा है वह तो उस आयुकी उत्कृष्ट कालवेदनाका स्वामी है, किन्तु जिसने उसे एक समयसे कम बांधा है वह उसकी अनुत्कृष्ट कालवेदनाका स्वामी है । इसी प्रकार दो समय कम, तीन समय कम, इत्यादि क्रमसे उत्तरोत्तर एक एक समय कम उक्त आयुके बांधनेवाले सब ही उसकी अनुत्कृष्ट कालवेदनाके स्वामी होंगे। यह इस सूत्रका अभिप्राय समझना चाहिये।
सामित्तेण जहण्णपदे णाणावरणीयवेदणा कालदो जहणिया कस्स १ ॥ १४ ॥
स्वामित्वसे जघन्य पदके आश्रित ज्ञानावरणीयकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य किसके होती है ? ॥ १४ ॥
अण्णदरस्स चरिमसमय छदुमत्थस्स तस्स णाणावरणीयवेयणा कालदो जहण्णा ॥
जो भी जीव छद्मस्थ अवस्थाके अन्तिम समयमें वर्तमान है उसके ज्ञानावरणीय कर्मकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य होती है ॥ १५॥
इसका कारण यह है कि छद्मस्थ अवस्थाके अन्तिम समयमें उस ज्ञानावरणकी स्थिति एक समय मात्र ही शेष रह जाती है ।
तव्वदिरित्तमजहण्णा ॥ १६ ॥ इस जघन्य वेदनासे भिन्न उसकी कालकी अपेक्षा अजघन्य वेदना होती है ॥ १६ ॥
इस अजघन्य कालवेदनाके स्वामी विचरम समयवर्ती क्षीणकषाय, त्रिचरम समयवर्ती क्षीणकषाय, इस क्रमसे अनेक समझने चाहिये ।
एवं दंसणावरणीय-अंतराइयाणं ॥१७॥
जिस प्रकार ज्ञानावरणकी जघन्य और अजघन्य कालवेदनाओंकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार दर्शनावरणीय एवं अन्तराय कर्मोंकी भी जघन्य व अजघन्य कालवेदनाके स्वामित्वकी प्ररूपणा करना चाहिये ॥ १७ ॥
सामित्तेण जहण्णपदे वेयणीपवेयणा कालदो जहणिया कस्स ? ॥ १८ ॥
स्वामित्वसे जघन्य पदके आश्रित वेदनीय कर्मकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य किसके होती है ? ॥ १८ ॥
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