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वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[४, २, ४, ५१
से काले परभावियमाउअंणिल्लेविहिदि त्ति तस्स आउअवेयणा दव्वदो उक्कस्सा ॥
तदनन्तर समयमें वह परभव सम्बन्धी आयुकी बन्धव्युच्छित्ति करेगा, अतः उसके आयुवेदना द्रव्यंकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है ॥ ४६ ॥
अभिप्राय इस सबका यह है कि जो जीव पूर्वकोटिके त्रिभागमें उत्कृष्ट आयुबन्धक कालके भीतर उसके योग्य उत्कृष्ट योगके द्वारा परभव सम्बन्धी आयुको बांधकर जलचर जीवोंमें उत्पन्न हुआ है तथा वहांपर जिसने सर्वजघन्य पर्याप्तिपूर्णताके कालमें छहों पर्याप्तियोंको पूर्णकरके व तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल जीवित रह करके अन्तर्मुहूर्त कम उस पूर्वकोटि प्रमाण सब ही भुज्यमान आयुका सदृश खण्डस्वरूपसे कदलीघातके द्वारा एक ही समयमें घात कर डाला है और उस घात करनेके ही समयमें फिरसे भी जो जलचर सम्बन्धी पूर्वकोटि प्रमाण दूसरी एक परभविक आयुके बन्धको प्रारम्भ करता हुआ उत्कृष्ट आयुबन्धक कालके भीतर उसके योग्य उत्कृष्ट योगके द्वारा उसके बन्धको अनन्तर समयमें समाप्त करनेवाला है; उसके द्रव्यकी अपेक्षा आयु कर्मकी उत्कृष्ट वेदना होती है।
तव्यदिरित्तमणुक्कस्सं ॥४७॥ उपर्युक्त उत्कृष्ट द्रव्यसे भिन्न द्रव्य उसकी (आयुकी) अनुत्कृष्ट वेदना है ॥ ४७ ।।
इस प्रकार आठों कोंकी उत्कृष्ट द्रव्यवेदनाके स्वामित्वकी प्ररूपणा करके अब आगे उन्हींकी जघन्य द्रव्यवेदनाके स्वामित्वकी प्ररूपणा की जाती है--
सामित्तेण जहण्णपदे णाणावरणीयवेयणा दव्वदो जहणिया कस्स ? ॥४८॥ . स्वामित्वसे जघन्य पदमें द्रव्यकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी जघन्य वेदना किसके होती है ।
जो जीवो सुहुमणिगोदजीवेसु पलिदोव्वमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणियं कम्मट्टिदिमच्छिदो ॥४९॥
जो जीव सूक्ष्म निगोद जीवोंमें पल्योपमके असंख्यातवें भागसे कम कर्मस्थिति प्रमाण काल तक रहा है ॥ ४९ ॥
तत्थ-य संसरमाणस्स बहुवा अपज्जत्तभवा थोवा पज्जत्तभवा ॥ ५० ॥
वहां सूक्ष्म निगोद जीवोंमें परिभ्रमण करते हुए जिसके अपर्याप्त भव बहुत और पर्याप्त भव थोड़े रहे हैं ॥ ५० ॥
दीहाओ अपज्जत्तद्धाओ रहस्साओ पज्जत्तद्धाओ ॥५१॥ जिसका अपर्याप्तकाल बहुत और पर्याप्तकाल थोड़ा रहा है ।। ५१ ॥
क्षपित-घोलमान और गुणित-घोलमान अपर्याप्तककालसे जिसका अपर्याप्तकाल दीर्घ तथा उन्हींके पर्याप्तकालसे जिसका पर्याप्तकाल थोडा होता है, ऐसा यहां अभिप्राय ग्रहण करना चाहिये।
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