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महाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ ४, २, ४, ८१ चरिमसमयछदुमत्थो जादो । तस्स चरिमसमय छदुमत्थस्स णाणावरणीयवेदणा दव्वदो जहण्णा ॥ ७५ ॥
इस प्रकार क्षपणाको करते हुए जो अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थ हुआ है उस अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थके ज्ञानावरणीयकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य होती है ॥ ७५ ॥
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चरमसमयवर्ती छद्मस्थसे अभिप्राय यहां क्षीणकषाय गुणस्थानके अन्तिम समयको प्राप्त होना है । कारण यह कि छद्म नाम आवरणका है, उस आवरणमें जो स्थित रहता है वह छद्मस्थ है; यह 'छद्मस्थ ' शब्दका निरुक्त्यर्थ होता है ।
तव्वदिरित्तमजहण्णा ॥ ७६ ॥
द्रव्यकी अपेक्षा इस जघन्यसे भिन्न ज्ञानावरणीयकी सब वेदना अजघन्य कही जाती है || एवं दंसणावरणीय मोहणीय अंतराइयाणं । णवरि विसेसो मोहणीयस्स खवणाए अट्ठदो चरिमसमयकसाई जादो । तस्स चरिमसमयसकसाइस्स मोहणीयवेयणा दव्वदो
जहण्णा ॥ ७७ ॥
इसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्मकी भी जघन्य द्रव्यवेदना जानना चाहिये । विशेष इतना है कि मोहनीयकी क्षपणामें उद्यत हुआ जीव सकषाय भावके अन्तिम समयको जब प्राप्त होता है तब उस अन्तिम समयवर्ती सकपायीके द्रव्यकी अपेक्षा मोहनीयकी वेदना जघन्य होती है ॥ ७७ ॥
तव्चदिरित्तमण्णा ॥ ७८ ॥
इससे भिन्न उक्त तीनों कर्मोंकी अजघन्य द्रव्यवेदना जानना चाहिये ॥ ७८ ॥ जघन्य द्रव्यके ऊपर उत्तरोत्तर परमाणुक्रमसे वृद्धिके होनेपर जितने उसके विकल्प सम्भव हैं वे सब इस अजघन्य वेदनाके अन्तगर्त हैं, यह अभिप्राय समझना चाहिये ।
अब आगे ३० (७९-१०८) सूत्रों के द्वारा वेदनीय कर्म सम्बन्धी जघन्य द्रव्यवेदना के स्वामिकी प्ररूपणा की जाती है
सामित्ते जहणपदे वेदणीयवेयणा दव्वदो जहणिया कस्स ? ॥ ७९ ॥ स्वामित्वसे जघन्य पदमें वेदनीय वेदना द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य किसके होती है ? ॥ जो जीव सुमणिगोदजीवेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणियकम्माट्ठ
दिमच्छिदो ॥ ८० ॥
जो जीव सूक्ष्म निगोद जीवों में पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन कर्मस्थिति प्रमाण रहा है ॥ ८० ॥
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तत्थ य संसरमाणस्स बहुआ अपज्जत्तभवा थोवा पज्जत्तभवा ।। ८१ ।। उनमें परिभ्रमण करते हुए जिसके अपर्याप्त भव स्तोक होते हैं ॥ ८१ ॥
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