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वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया [४, २, ४, १९६ ठाणपरूवणाए असंखेज्जाणि फद्दयाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि । तमेगं जहण्णयं जोगट्ठाणं भवदि ॥ १८६ ॥
स्थानप्ररूपणाके अनुसार श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र जो असंख्यात स्पर्धक हैं उनका एक जघन्य योगस्थान होता है ॥ १८६ ॥
एवमसंखेज्जाणि जोगट्ठाणाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि ॥ १८७ ॥ इस प्रकार वे योगस्थान असंख्यात हैं, जो श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र हैं ॥१८७॥ अणंतरोवणिधाए जहण्णए जोगट्ठाणे फद्दयाणि थोवाणि ॥ १८८ ॥ अनन्तरोपनिधाके अनुसार जघन्य योगस्थानमें स्पर्धक स्तोक हैं ।। १८८ ।। बिदिए जोगट्ठाणे फद्दयाणि विसेसाहियाणि ॥ १८९ ॥ उनसे दूसरे योगस्थानमें वे स्पर्धक विशेष अधिक हैं ॥ १८९ ॥ तदिए जोगट्ठाणे फद्दयाणि विसेसाहियाणि ॥ १९० ॥ उनसे तृतीय योगस्थानमें वे स्पर्धक विशेष अधिक हैं । १९० ॥ एवं विसेसाहियाणि विसेसाहियाणि जाव उक्कस्सजोगट्ठाणेत्ति ॥ १९१ ॥ इस प्रकार उत्कृष्ट योगस्थान तक वे उत्तरोत्तर विशेष अधिक, विशेष अधिक हैं ॥१९१॥ विसेसो पुण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ताणि फद्दयाणि ॥ १९२ ॥ विशेषका प्रमाण अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र स्पर्धक हैं ॥ १९२ ॥
परंपरोवणिधाए जहण्णजोगट्ठाणफद्दएहिंतो तदो सेडीए असंखेज्जदिभागं गंतूण दुगुणवड्ढिदा ॥ १९३ ॥
परंपरोनिधानके अनुसार जघन्य योगस्थान सम्बन्धी स्पर्धकोंसे श्रेणिके असंख्यातवें भाग स्थान जाकर वे दुगुणी वृद्धिको प्राप्त हुए हैं ॥ १९३ ॥
__ एवं दुगुणवढिदा दुगुणवड्ढिदा जाव उक्कस्स जोगट्ठाणेत्ति ॥ १९४ ॥
इस प्रकार उत्कृष्ट योगस्थान तक वे दुगुणी दुगुणी वृद्धिको प्राप्त होते गये हैं ॥१९४॥
__ एगजोगदगुणवड्ढि-हाणिट्ठाणंतरं सेडीए असंखेज्जदिभागो णाणाजोगदुगुणवड्ढिहाणिट्ठाणंतराणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । १९५॥
एकयोगदुगुणवृद्धि हानिस्थानान्तर श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण और नानायोगदुगुणवृद्धि-हानिस्थानान्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं ॥ १९५ ॥
__णाणाजोगदुगुणवड्ढि-हाणिट्ठाणंतराणि थोपाणि । एगजोगदुगुणवड्ढि-हाणिट्ठाणंतरमसंखेज्जगुणं ॥ १९६ ॥
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