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वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे पदमिमांसा
[४, २, ४,३
__ यहां गुणितकौशिक और क्षपितकांशिकका स्वरूप इस प्रकार समझना चाहियेजो जीव पूर्वकोटिपृथक्त्व और दो हजार सागरोपमोंसे (त्रसस्थितिकाल ) हीन सत्तर कोडाकोटि सागरोपम प्रमाण बादर पृथिवीकायिक जीवोंमें रहा है, वहां रहते हुए भी जिसने पर्याप्त भवोंको अधिक और अपर्याप्त भवोंको अल्प संख्यामें ग्रहण किया है, जो उपर्युक्त पर्याप्त भवोंमें उत्पन्न होता हुआ लंबी आयुको लेकर तथा अपर्याप्त भवोंमें उत्पन्न होता हुआ अल्प आयुको ले करके उत्पन्न हुआ है, जो आयुबन्धकालमें आयुबन्धके योग्य जघन्य योगसे उस आयुको बांधता रहा है, जिसका उत्कर्षणद्रव्य क्षपितकौशिक, क्षपित्त-घोलमान और गुणित-घोलमान जीवोंकी अपेक्षा अधिक तथा अपकर्षणद्रव्य उन्हींकी अपेक्षा अल्प रहा है; जो अनेक वार उत्कृष्ट योगस्थानोंमें तथा बहुत संकेश परिणामों में वर्तमान रहा है। इस प्रकार बादर पृथिवीकायिकोंमें परिभ्रमण करके तत्पश्चात् जो बादर त्रस पर्याप्तक जीवोंमें उत्पन्न हुआ है, वहां उत्पन्न होते हुए भी जिसने दीर्घ आयुके साथ पर्याप्त भवोंको अधिक प्रमाणमें तथा अल्प आयुके साथ अपर्याप्त भवोंको अल्प प्रमाणमें धारण किया है, जिसका उत्कर्षण द्रव्य अधिक और अपकर्षण द्रव्य हीन रहा है, जो वहांपर बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानोंको तथा बहुत संक्लेश परिणामोंको प्राप्त हुआ है। इस प्रकार परिभ्रमण करके जो अन्तिम भवग्रहणमें सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न हुआ है, वहांपर जो सर्वलघु अन्तमुहूर्त कालमें सब पर्याप्तियोंको पूर्ण करके पर्याप्त हुआ है, अपने जीवितकालमें जो बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानोंको और बहुत संक्लेश परिणामोंको प्राप्त हुआ है, इस प्रकार परिभ्रमण करते हुए जो अन्तमुहूर्त मात्र आयुके शेष रहनेपर योगयव मध्यके ऊपर अन्तमुहूर्त कालतक स्थित रहा है तथा द्विचरम और त्रिचरम समयमें जो उत्कृष्ट संक्लेशको तथा चरम और द्विचरम समयमें उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ है। इस प्रकारका जीव उस नारक भवके अन्तिम समयमें वर्तमान होता हुआ गुणितकर्मांशिक कहलाता है । (यह अभिप्राय आगे सूत्र ७ से ३२ में प्रगट किया है)
जो जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन सत्तर कोडाकोडि सागरोपम प्रमाण काल तक सूक्ष्म निगोद जीवोंके मध्यमें रहा है, फिर वहांसे निकलकर जो बादर पृथिवीकायिक जीवोंमें उत्पन्न होता हुआ सर्वलघु कालमें सब पर्याप्तियोंको पूर्ण करके पर्याप्त हो गया है, तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्त कालमें मरणको प्राप्त होकर पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न होता हुआ जो गर्भमें सात मासके बीतनेपर जन्मको प्राप्त हुआ है, पुनः आठ वर्षका होकर जिसने संयमको प्राप्त कर लिया है, इस प्रकार कुछ कम पूर्वकोटि काल तक संयमको पालन करके जो थोडीसी आयुके शेष रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्त होता हुआ उस अल्पकालीन मिथ्यात्वयुक्त असंयमके साथ मरगको प्राप्त होकर दस हजार वर्षकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ है, वहां सर्वलघुकालमें सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त होकर जिसने अन्तर्मुहूर्तमें ही सम्यक्त्वको प्राप्त होते हुए कुछ कम दस हजार वर्ष तक उसका परिपालन किया है, तत्पश्चात् आयुके अन्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त होकर उसके साथ मरणको प्राप्त होता हुआ जो बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंमें उत्पन्न हुआ है, पुनः सूक्ष्म
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