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४, २, ४, ४] छक्खंडागमे वेयणाखडं
५४१ निगोद जीवोंमें उत्पन्न होकर तत्पशात फिरसे भी जो बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवोंमें उत्पन्न हुआ है, इस प्रकारसे परिभ्रमण करते हुए जिसने अनेकवार देवों व मनुष्योंमें उत्पन्न होकर बत्तीस बार संयमको प्राप्त होते हुए चार चार कषायोंको उपशमाया है और पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र संयमासंयम एवं सम्यक्त्वको प्राप्त किया है, इस प्रकारसे परिभ्रमण करता हुआ जो अन्तिम भवमें फिरसे पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न होकर सर्व लघुकाल ( सात मासके अनन्तर ) में जन्मको प्राप्त हुआ है तथा आठ वर्षकी अवस्थामें जिसने संयमको धारण कर लिया है, तत्पश्चात् कुछ कम पूर्वकोटि काल तक उसका परिपालन करके जो आयुके अल्प शेष रह जानेपर क्षपणामें उद्यत होकर छद्मस्थ अवस्थाके अन्तिम समयको प्राप्त हो चुका है: उसे क्षपितकर्माशिक समझना चाहिये । (यह भाव आगेके ४० से ७५ सूत्रोंमें मूल ग्रन्थकर्ताके द्वारा प्रगट किया गया है)
एवं सत्तणं कम्माणं ॥ ४ ॥ इसी प्रकार सात कर्मोकी भी वेदनाके उत्कृष्ट आदि पदों की मीमांसा है ॥ ४ ॥
अभिप्राय यह कि जिस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्मकी पदमीमांसा की गई है उसी प्रकार वह शेष सात कर्मोंकी भी जानना चाहिये, क्योंकि, इससे उसमें कोई विशेषता नहीं है ।
सामित्तं दुविहं जहण्णपदे उक्कस्सपदे ॥ ५॥ स्वामित्व दो प्रकारका है जघन्य पदविषयक और उत्कृष्ट पदविषयक ॥ ५ ॥
सूत्रमें 'पदे' यह सप्तमी विभक्ति नहीं हैं, किन्तु प्रथमा विभक्ति है। यहां एकारका आदेश हो जानेसे 'पदे' यह रूप हो गया है। यहां 'पद' शब्दको स्थानवाचक समझना चाहिये । जिस स्वामित्वका जघन्य पद है वह जघन्यपद कहलाता है, और जिस स्वामित्वका उत्कृष्ट पद है वह उत्कृष्टपद कहलाता है । अथवा 'पदे' इसे सप्तमी विभक्त्यन्त भी मानकर उससे जघन्य पदमें (पदविषयक) एक स्वामित्व और उत्कृष्ट पदमें दूसरा स्वामित्व, इस प्रकार वह स्वामित्व दो ही प्रकारका है, यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिये।
अब इनमें उत्कृष्ट पदविषयक स्वामित्वकी प्ररूपणा करते हुए प्रथमतः सत्ताईस (६-३२) सूत्रों द्वारा द्रव्यकी अपेक्षा ज्ञानावरणीय सम्बन्धी वेदनाके स्वामित्वकी प्ररूपणा की जाती है
सामित्तेण उक्कस्सपदे णाणावरणीयवेयणा दव्वदो उक्कस्सिया कस्स ? ॥६॥
स्वामित्वकी अपेक्षा उत्कृष्ट पदविषयक ज्ञानावरणीय वेदना द्रव्यसे उत्कृष्ट किसके होती है ? ॥ ६॥
__जो जीयो बादरपुढवीजीवेसु बेसागरोवमसहस्सेहि सादिरेगेहि ऊणियं कम्मट्टिदिमच्छिदो ॥७॥
जो जीव बादर पृथिकायिक जीवोंमें कुछ अधिक दो हजार सागरोपमसे कम कर्मस्थिति ज्ञानावरणीयकी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण काल तक रहा हो ॥ ७ ॥
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