________________
४, २, ४, १५] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[५४३ इस प्रकार परिभ्रमण करके जो बादर त्रस पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ ॥ १४ ॥
त्रसका उत्कृष्ट योग स्थावरके योगसे असंख्यातगुणा होनेके कारण चूंकि उसके द्वारा कर्मका संकलन अधिक होता है, अत एव यहां बादर त्रस पर्याप्त जीवोंमें उत्पन्न होनेका निर्देश किया गया है। - तत्थ य संसरमाणस्म बहुआ पज्जत्तभवा, थोवा अपज्जत्तभवा ।। १५ ॥
वहां परिभ्रमण करते हुए जिसने पर्याप्त भवोंको अधिक और अपर्याप्त भवोंको अल्प मात्रमें ग्रहण किया है ॥ १५॥
दीहाओ पज्जत्तद्धाओ रहस्साओ अपज्जत्तद्धाओ॥ १६ ॥ वहां जिसका पर्याप्तकाल दीर्घ और अपर्याप्तकाल थोड़ा रहा है ॥ १६ ॥ जदा जदा आउअं बंधदि तदा तदा तप्पाओग्गजहण्णएण जोगेण बंधदि ॥१७॥ जो जब जब आयुको बांधता है तब तब उसके योग्य जघन्य योगसे ही बांधता है ।।
उवरिल्लीणं द्विदीणं णिसेयस्स उक्कस्सपदे हेडिल्लीणं द्विदीर्ण णिसेयस्स जहण्णपदे ॥ १८ ॥
जो उपरिम स्थितियोंके निषेकका उत्कृष्ट पद और नीचेकी स्थितियोंके निषेकका जघन्यपद करता है ॥ १८ ॥
इस सूत्रका अभिप्राय पिछले ग्यारहवे सूत्रके समान समझना चाहिये। बहुसो बहुसो उक्कसाणि जोगट्ठाणाणि गच्छदि ॥ १९ ॥ बहुत बहुत बार जो उत्कृष्ट योगस्थानोंको प्राप्त होता है ॥ १९ ॥ ... बहुसो बहुसो बहुसंकिलेस परिणामो भवदि ॥ २० ॥ बहुत बहुत बार जो बहुत संक्लेश परिणामवाला होता है ।। २० ॥ .. एवं संसरिदूण अपच्छिमे भवग्गहणे अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु उबवण्णो ॥
इस प्रकार परिभ्रमण करके जो अन्तिम भवग्रहणमें नीचे सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न हुआ है ॥ २१॥
तेणेव पढमसमयआहारएण पढमसमयतब्भवत्थेण उक्कस्सेण जोगेण आहारिदो॥
जिसने कर्मस्थितिके समान यहां भी प्रथम समयवर्ती आहारक और प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ होकर उत्कृष्ट योगके द्वारा कर्मपुद्गलस्कन्धको ग्रहण किया ॥ २२ ॥
उक्कस्सियाए वड्डीए वड्ढिदो ॥ २३ ॥ उत्कृष्ट वृद्धिसे जो वृद्धिको प्राप्त हुआ है ॥ २३ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org