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५३८ ] * वेयणणामविहाणं
[ ४, २, ३, ४ ___इस नामके आश्रयसे यहां वेदनाके विधानकी प्ररूपणा पूर्वके समान करनी चाहिये, क्योंकि, उससे यहां कोई विशेषता नहीं है । इस नयकी अपेक्षा नामविधानकी प्ररूपणा करते समय आठोंही कोंकी वेदना, ऐसा कहना चाहिये, क्योंकि, संग्रहनयकी अपेक्षा 'आठ' इस संख्या ज्ञानावरणादि कर्मोके सब भेद सम्भव है। सूत्रमें जो एक 'वेदना' शब्द प्रयुक्त है उससे वेदनाके सब भेदोंकी अविनाभाविनी एक वेदना जातिका ग्रहण होता है, क्यों कि इनके विना संग्रह वचन सम्भव नहीं है। संग्रहनयका काम एक सामान्य धर्म द्वारा अवान्तर सब भेदोंका संग्रह करना है । अभिप्राय यह कि नैगम और व्यवहार नयकी अपेक्षा प्रकृत वेदना आठ प्रकारकी बतलाई है । किन्तु यह संग्रहनय उन आठोंही कर्मोकी एक वेदना जातिको स्वीकार करता है, क्योंकि, उक्त संग्रहनयमें अभेदकी प्रधानता है । यही कारण है कि इस नयकी अपेक्षा आठोंही कर्मोकी एक वेदना कही गई है।
उजुसुदस्स णो-णाणावरणीयवेयणा णो दंसणावरणीयवेयणा णो मोहणीयवेयणा णो आउअवेयणा णो णामवेयणा णो गोदवेयणा णो अंतराइयवेयणा, वेयणीयं चेव वेयणा ॥
__ ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा न ज्ञानावरणीयवेदना है, न दर्शनावरणीयवेदना है, न मोहनीयवेदना है, न आयुवेदना है, न नामवेदना है, न गोत्रवेदना है और न अन्तरायवेदना है । उसकी अपेक्षा एक वेदनीय ही वेदना है ॥ ३ ॥
वेदनाका अर्थ सुख-दुःख होता है, क्यों कि, लोकमें ऐसा ही व्यवहार देखा जाता है । ये सुख-दुःख वेदनीयरूप पुद्गलस्कन्धको छोड़कर अन्य कर्मद्रव्योंसे नहीं उत्पन्न होते हैं। यदि उक्त सुख-दुखका किसी अन्य कर्मसे उत्पन्न होना सम्भव हो तो फिर वेदनीय कर्मका कोई कार्य ही नहीं रह जाता है, इसीलिये उक्त वेदनीय कर्मके अभावका प्रसंग अनिवार्य होगा इसलिये प्रकृतमें सब कर्मोंका प्रतिषेध करके उदयगत वेदनीयद्रव्यको ही 'वेदना' ऐसा कहा है।
सद्दणयस्स वेयणा चेव वेयणा ॥४॥ शब्द नयकी अपेक्षा वेदना ही वेदना है ॥ ४ ॥
शब्द नयकी अपेक्षा वेदनीय द्रव्यकर्मके उदयसे उत्पन्न हुआ सुख-दुःख अथवा आठ कोंके उदयसे उत्पन्न हुआ जीवका परिणाम वेदना कहलाता है । इस नयकी अपेक्षा कर्मद्रव्यको वेदना नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि, शब्द नयका विषय द्रव्य सम्भव नहीं है।
॥ इस प्रकार वेदनानामविधान अनुयोगद्वार समाप्त हुआ ।। ३ ॥
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