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छक्खंडागमे वेयणाखंडं
[४, १,४४
णमो वड्ढमाणबुद्धरिसिस्स ॥४४॥ वर्धमान बुद्ध ऋषिको नमरकार हो ॥ ४४ ॥
इस प्रकार यहां ४४ सूत्रों द्वारा मंगल करके अब आगे ग्रन्थका सम्बन्ध प्रगट करनेके लिये सूत्र कहते हैं
अग्गेणियस्स पुवस्स पंचमस्स वत्थुस्स चउत्थो पाहुडो कम्मपयडी णाम ॥४५॥ अग्रायणी पूर्वकी पंचम वस्तुके चतुर्थ प्राभृतका नाम कर्मप्रकृति है ॥ ४५ ॥
दृष्टिवाद नामक बारहवें अंगके पांच भेदोंमें जो पूर्वगत है वह उत्पादपूर्व व अग्रायणीयपूर्व आदिके भेदसे चौदह प्रकारका है। इनमें द्वितीय अग्रायणीय पूर्वमें 'वस्तु' नामसे प्रसिद्ध ये चौदह अधिकार हैं-- पूर्वान्त, अपरान्त, रुव, अध्रुव, चयनलब्धि, अवसप्रणिधान, कल्प, अर्थ, भौभावयाद्य, सर्वार्थ, कल्पनिर्याण, अतीत-अनागतकाल, सिद्ध और बुद्ध । इनमेंसे यहां पांचवा चयनलब्धि नामका अधिकार प्रकृत है । उसमेंके बीस प्राभृतोंमेंसे यहां कर्मप्रकृति प्राभृत नामका चतुर्थ प्राभृत विवक्षित है। उसमें ये चौबीस अधिकार हैं- कृति, वेदना, स्पर्श, कर्म, प्रकृति, बन्धन, निबन्धन, प्रक्रम, उपक्रम, उदय, मोक्ष, संक्रम, लेश्या, लेश्याकर्म, लेश्यापरिणाम, सात-असात, दीर्घ-हस्व, भवधारणीय, पुद्गलात्त, निधत्त-अनिधत्त, निकाचित-अनिकाचित, कर्मस्थिति, पश्चिमस्कन्ध और अल्पबहुत्व । इन चौबीस अधिकारों से यहां प्रथम कृति अनुयोगद्वार प्रकृत है। इस कृति अनुयोगद्वारकी प्ररूपणा करनेके लिये आगेका सूत्र कहा जाता है ।
कदि त्ति सत्तविहा कदी-णामकदी ठवणकदी दव्वकदी गणणकदी गंधकदी करणकदी भावकदी चेदि ॥ ४६॥
___कृति सात प्रकारकी है- नामकृति, स्थापनाकृति, द्रव्यकृति, गणनाकृति, ग्रन्थकृति, करणकृति और भावकृति ॥ ४६ ॥
इनके अर्थकी प्ररूपणा आगे स्वयं सूत्रकारके द्वारा की गई है, अतः यहां उनका स्वरूप नहीं निर्दिष्ट किया गया है । अब इन सात कृतियोंमेंसे किस नयके लिये कौन-सी कृतियां अभीष्ट हैं, इसकी प्ररूपणा करनेके लिये आगेका सूत्रप्रबन्ध प्राप्त होता है
कदिणयविभासणदाए को णओ काओ कदीओ इच्छदि १॥४७॥ कृतियोंके नयोंके व्याख्यानमें कौन नय किन कृतियोंकी इच्छा करता है ? ।। ४७ ॥ णइगम-चवहार-संगहा सव्वाओ ॥४८॥ नैगम, व्यवहार और संग्रह ये तीन नय सब कृतियोंको स्वीकार करते हैं ॥ ४८ ॥ उजुसुदो ढवणकदिं णेच्छदि ॥ ४९ ॥ ऋजुसूत्र नय स्थापनाकृतिको स्वीकार नहीं करता है ॥ ४९ ॥
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