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४, १, ४३]
कदिअणियोगद्दारे सप्पिसविरिद्धिपरूवणा
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णमो सप्पिसवीणं ॥ ३९ ॥ सर्पिस्रवी जिनोंको नमस्कार हो ॥ ३९ ॥
सर्पिष् शब्दका अर्थ घृत होता है । तपके प्रभावसे जिनके अंजली पुटमें गिरे हुए सब आहार घृत स्वरूपसे परिणत हो जाते हैं वे सर्पिस्रवी कहलाते हैं । उनको नमस्कार हो ।
णमो महसवीणं ॥४०॥ मधुस्रवी जिनोंको नमस्कार हो ॥ ४० ॥
मधु शब्दसे गुड, खांड, और शक्कर आदिका ग्रहण किया जाता है। जो हाथमें रखे हुए समस्त आहारोंको गुड, खांड और शक्करके स्वादस्वरूप परिणत करनेमें समर्थ हैं वे मधुस्रवी जिन हैं । उनको मन, वचन व कायसे नमस्कार हो ।
णमो अमडसवीणं ॥४१॥ अमृतस्रवी जिनोंको नमस्कार हो ॥ ४१ ॥
जिनके हाथमें आया हुआ आहार अमृतस्वरूपसे परिणित हो जाता है वे अमृतस्रवी जिन हैं उन अमृतस्रवी जिनोंको नमस्कार हो, यह सूत्रका अर्थ है ।
णमो अक्खीणमहाणसाणं ॥ ४२ ॥ अक्षीणमहानस ऋद्धिधारक जिनोंको नमस्कार हो ।। ४२ ॥
अक्षीणमहानस शब्दके देशामर्शक होनेके कारण उससे अक्षीणवसति जिनोंका भी ग्रहण होता है । अभिप्राय यह है कि जिन महर्षियोंके द्वारा आहार ग्रहण कर लेने पर शेष भोजन चक्रवर्तीकी समस्त सेवाके द्वारा भी उपभोग करनेपर हानिको प्राप्त नहीं होता है वे अक्षीणमहानस ऋद्धिधारक कहलाते हैं। इसी प्रकार जिनके चार हाथ प्रमाण भी गुफामें अवस्थित रहनेपर चक्रवर्तीका समस्त सैन्य भी उस गुफामें समा सकता है वे अक्षीणावास ऋद्धिधारक कहलाते हैं। उन अक्षीणमहानस जिनोंको नमस्कार हो ।
णमो लोए सव्वसिद्धायदणाणं ॥ ४३ ॥ लोकमें सब सिद्धायतनोंको नमस्कार हो ॥ ४३ ॥
'सर्व सिद्ध' इस वचनसे यहां पूर्वमें कहे हुए समस्त जिनोंको ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि उक्त जिनोंको छोड़कर अन्य कोई देशसिद्ध व सर्वसिद्ध नहीं पाये जाते हैं। सब सिद्धोंके जो आयतन हैं वे सर्वसिद्धायतन कहे जाते हैं। इससे कृत्रिम व अकृत्रिम जिनगृह, जिनप्रतिमा तथा ईषत्प्राग्भार, ऊर्जयन्त, चम्पापुर व पावानगर आदि क्षेत्रों एवं निषीधिकाओंको भी ग्रहण करना चाहिये । उन सिद्धायतनोंकों नमस्कार हो ।
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