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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, १, ७०
उसकी संघातन-परिशातन कृति होती है, क्यों कि, उस समय उक्त शरीरके स्कन्धोंका आगमन और निर्जरा दोनों एक साथ देखे जाते हैं । तथा उत्तर शरीरका उत्पादन कर मूल शरीरमें प्रविष्ट हुए देव व नारकीके मूलशरीरकी परिशातनकृति होती है, क्यों कि, उस समय उक्त शरीरके स्कन्धोंका आगमन नहीं होता ।
इसी प्रकार आहारशरीरको उत्पन्न करनेके प्रथम समय में उसकी संघातनकृति, द्वितीयादि समयोमें संघातन-परिशातनकृति तथा मूल शरीरमें प्रविष्ट होनेपर परिशातनकृति जाननी चाहिये । जा सा तेजा कम्म यसरीरमूलकरणकदी णाम सा दुविहा परिसादणकदी संघादण - परसादणकदी चेदि । सा सव्वा तेजा कम्मइयसरीरमूलकरणकदी णाम ।। ७० ॥
जो वह तैजस-कार्मणशरीरमूलकरणकृति है वह दो प्रकारकी है- परिशातनकृति और संघातन-परिशातनकृति । वह सब तैजस - कार्मणशरीरमूलकरणकृति है || ७० ||
अयोगकेवलीके जानेके इन दोनों शरोरोंकी परिशातनकृति होती है । इसका कारण यह है कि उनके योगका अभाव हो जानेसे बन्धका सर्वथा विनाश हो चुका है । अयोगकेवलीको छोड़कर अन्य सब ही संसारी जीवोंके उक्त दोनो शरीरोंकी संघातन-परिशातन कृति ही होती है, क्योंकि, संसार में सर्वत्र उनका आगमन और निर्जरा दोनों पाये जाते हैं । इन दोनों शरीरोंकी संघातनकृति सम्भव नहीं है, क्योंकि बन्ध, सत्त्व और उदयसे रहित हुए सिद्ध जीवोंके बन्धके कारणोंकी सम्भवना न रहनेसे उनके इन दोनों शरीरोंका नवीन बन्ध सम्भव नहीं हैं । ये सब तैजसशरीर और कार्मणशरीररूप मूलकरणकृतियां हैं, ऐसा जानना चाहिये ।
इस प्रकार उपर्युक्त सूत्रोंद्वारा मूलकरणकृतियोंके सत्त्वकी प्ररूपणा करके अब आगे उत्तरकरणकृतिकी प्ररूपणा की जाती है
जा सा उत्तरकरणकदी णाम सा अणेयविहा । तं जहा - असि चासि परसु-कुडारीचक्क दंड-वेयणालिया - सलाग-मडिय-सुत्तोदयादीणमुवसंपदसणिज्झे ॥ ७१ ॥
जो वह उत्तरकरणकृति है वह अनेक प्रकारकी है । यथा - असि, वासि, परशु, कुदारी, चक्र, डण्ड, वेम, नालिका, शलाका, मृत्तिका, सूत्र और उदकादिकोंका सामीण्य कार्यों में होता है ॥ चूंकि अन्य सब करणोंके कारण हैं, असि व वासि आदिको उत्तरकरण
औदारिकादि पांच शरीर जीवके साथ रहते हुए अतएव वे मूलकरण माने गये हैं । उनके कारण होनेसे इन समझना चाहिये । वह उत्तरकरणकृति अनेक प्रकारकी है ।
जो द्रव्यका आश्रय करते हैं वे उपसंपद अर्थात् कार्य कहलाते हैं । उनकी समीपताका नाम उपसंपदसानिध्य है, इसलिये असि, वासि, परशु, कुदारी, चक्र, दण्ड, वेम, नालिका, शलाका, मृत्तिका, सूत्र और उदक आदि कार्योंकी समीपताके आश्रयसे उत्तरकरण कहलाते हैं ।
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