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४, १, ५२ ) कदिअणियोगद्दारे णयविभासणदा
[ ५२३ ___ अभिप्राय यह है कि ऋजुसूत्र स्थापनाकृतिको छोड़कर शेष सब कृतियोंको स्वीकार करता है । ऋजुसूत्र नय शुद्ध और अशुद्धके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें यहां अशुद्ध ऋजुसूत्र नय विवक्षित है, क्योंकि, स्थापना कृतिको छोड़कर अन्य सब कृतियां उसीकी विषय हो सकती हैं । शुद्ध ऋजुसूत्र नय तो अर्थपर्यायको विषय करनेके कारण केवल भावकृतिको ही विषय करता है, उसको छोड़कर वह अन्य किसी भी कृतिको स्वीकार नहीं करता है ।
सद्दादओ णामकदिं भावकदिं च इच्छंति ॥ ५० ॥ शब्दादिक नय नामकृति और भावकृतिको स्वीकार करते हैं ॥ ५० ॥ इस प्रकार उक्त कृतियोंकी नयविषयताका कथन अब आगे निक्षेपप्ररूपणासे किया जाता है
जा सा णामकदी णाम सा जीवस्स वा, अजीवस्स वा, जीवाणं वा, अजीवाणं वा, जीवस्स च अजीवस्स च, जीवस्स च अजीवाणं च, जीवाणं च अजीवस्स च जीवाणंच अजीवाणं च जस्स णामं कीरदि कदि त्ति सा सव्वा णामकदी णाम ॥५१॥
जो वह नामकृति है वह एक जीवके, एक अजीवके, बहुत जीवोंके, बहुत अजीवोंके, एक जीव और एक अजीवके, एक जीव और बहुत अजीवोंके; बहुत जीवों और एक अजीवके, तथा बहुत जीवों और बहुत अजीवोंमें जिसका ‘कृति' ऐसा नाम किया जाता है वह सब नामकृति कहलाती है ॥ ५१॥
नामकृति उपर्युक्त एक व अनेक जीवाजीवादि आठकोंही विषय करती है, क्यों कि, इनसे अधिक भंग सम्भव नहीं हैं । इन आठ भंगोमें जिसका ‘कृति' ऐसा नाम किया जाता है वह अपने आपमें रहनेवाली ‘कृति' संज्ञा आधारके भेदसे आठ प्रकार और अवान्तर भेदसे करोड़ों भेदोंको प्राप्त होती है । वह सब नामकृति कहलाती है।
जा सा ठवणकदी णाम सा कट्ठकम्मेसु वा चित्तकम्मेसु वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्पकम्मेसु वा लेणकम्मेसु वा सेलकम्मसु वा गिहकम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा दंतकम्मेसु वा भेडकम्मेसु वा अक्खो वा वराडओ वा जे चामण्णे एवमादिया ठवणाए ठविज्जति कदि ति सा सव्वा ठवणकदी णाम ॥५२॥
जो वह स्थापनाकृति है वह काष्टकर्मों में, अथवा चित्रकर्मों में, अथवा पोत्तकर्मों में, अथवा लेप्यकर्मों में, अथवा लयनकर्मों में, अथवा शैलकर्मों में, अथवा गृहकर्मोंमें अथवा भित्तिकर्मों में अथवा दन्तकर्मों में, अथवा भेण्डकों में, अथवा अक्ष या वराटक; तथा इनको आदि लेकर अन्य भी जो 'कृति' इस प्रकार स्थापनाद्वारा स्थापित किये जाते हैं वह सब स्थापनाकृति कही जाती है ॥५२॥
सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापनाके भेदसे स्थापना दो प्रकारकी है। इनमें यहां पहिले सद्भावस्थापनाके कुछ उदाहरण दिये जाते हैं- नाचना, हँसना, गाना तथा तुरई एवं वीणा आदि बाजोंके बजाने रूप क्रियायोंमें प्रवृत्त हुए देव, नारकी, तिर्यंच और मनुष्योंकी काष्ठसे निर्मित
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