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४, १, ६२ ]
कदिअणियोगद्दारे आगमदव्यकदिपरूवणा
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संगणस्स एयो वा अणेया वा अणुवजुतो आगमदो दव्वकदी || ५७ ॥ संग्रह नयकी अपेक्षा एक अथवा अनेक अनुपयुक्त जीव आगमसे द्रव्यकृति है ॥ ५७ ॥ उजुसुदस्स एओ अणुवत्तो आगमदो दव्वकदी ॥ ५८ ॥
ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा एक अनुपयुक्त जीव आगमसे द्रव्यकृति है ॥ ५८ ॥
सद्दणस्स अवत्तव्वं ॥ ५९ ॥
शब्दयकी अपेक्षा अवक्तव्य है ॥ ५९ ॥
सा सव्वा आगमदो दव्वकदी नाम ॥ ६० ॥
वह सब आगमसे द्रव्यकृति कहलाती है ॥ ६० ॥
जा सा गोआगमदो दव्वकदी णाम सा तिविहा- जाणुगसरीरदव्वकदी भवियदव्वकदी जाणुगसरीर - भविय तव्वदिरित्तदव्वकदी चेदि ॥ ६१ ॥
जो वह नोआगमसे द्रव्यकृति है वह तीन द्रव्यकृति और ज्ञायकशरीर भावीव्यतिरिक्त द्रव्यकृति ॥
प्रकारकी है- ज्ञायकशरीर द्रव्यकृति, भावी ६१ ॥
कृतिप्राभृतके जानकार जीवका जो शरीर है तत्स्वरूप द्रव्यकृति ज्ञायकशरीर नोआगमद्रव्यकृति कहलाती है । जो भविष्य में कृति पर्यायस्वरूपसे परिणत होनेवाला है तत्स्वरूप द्रव्यकृति भावी नोआगम द्रव्यकृति कही जाती है । इन दोनोंसे भिन्न द्रव्यकृतिको तद्द्रव्यव्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यकृति समझना चाहिये ।
आगे इन्हीं तीनों कृतियोंकी विशेष प्ररूपणा की जाती है
जा सा जाणुगसरीर दव्वकदी णाम तिस्से इमे अत्थाहियारा भवति द्विदं जिदं परिजिदं वायणोत्रगदं सुत्तसमं अत्थसमं गंथसमं णामसमं घोससमं ॥ ६२ ॥
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जो वह ज्ञायकशरीर द्रव्यकृति है उसके ये अर्थाधिकार हैं- स्थित, जित, परिजित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रन्थसम, नामसम और घोषसम ॥ ६२ ॥
उनमें धीरे धीरे अपने विषय में वर्तमान कृतिअनुयोग स्थित कहलाता है । विना रुकावटके मन्द गतिसे अपने विषय में संचार करनेवाला कृतिअनुयोग जित कहलाता है । रुकावटके विना अति शीघ्र गतिसे घुमाए हुए कुम्हारके चक्र के समान जो कृतिअनुयोग अपने विषयमें संचार करनेमें समर्थ है वह परिजित है । नन्दा-भद्रा आदिके स्वरूपको प्राप्त कृतिविषयक श्रुतज्ञानका नाम वाचनोपगत है । जिन भगवान् के मुखसे निकला हुआ जो बीजपद अनन्त अर्थोंके ग्रहण करने में समर्थ है वह सूत्र कहलाता है; इस सूत्र के साथ गणधर देवोंमें उत्पन्न हुए कृतिअनुयोगद्वारका नाम सूत्रसम है । ग्रन्थ और बीज पदोंके विना संयम के प्रभाव से केवलज्ञानके समान जो स्वयंबुद्धों में कृतिअनुयोग उत्पन्न होता है वह अर्थके साथ रहने से अर्थसम कहा जाता है। अरहन्त
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