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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, १, २३
ये उग्रतप ऋद्धिके धारक दो प्रकारके हैं- उग्रोग्रतप - ऋद्धिधारक और अवस्थित उग्रतपऋद्धि धारक । उनमें जो एक उपवासको करके पारणा करनेके पश्चात् फिर दो उपवास करता हैं, पश्चात् इसी क्रमसे तीन उपवास करता हैं, इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक उपवासको बढ़ाते हुए अधिक वृद्धि जीवन पर्यन्त उपवासोंको किया करता है वह साधु उग्रोग्रतप ऋद्धिका धारक माना जाता है । जो दीक्षाके समय एक उपवासको करके पारणा करता है और तत्पश्चात् एक दिनके अन्तरसे किसी निमित्तको पाकर षष्टोपवासी हो जाता है । फिर उस षष्टोपवाससे विहार करते हुए अष्टमोपवासी हो जाता है । इस प्रकार दशम और द्वादशम आदिके क्रमसे नीचे न गिरकर जो जीवन पर्यन्त विहार करता है वह अवस्थित उग्रतप - ऋद्धिका धारक कहा जाता है । इन दोनों तपोंका उत्कृष्ट फल मोक्षही है, अन्य स्वर्गादि तो अनुत्कृष्ट फल हैं । इन उम्रतप ऋद्धिधारक जिनोंको यहां नमस्कार किया गया है ।
मो दित्ततवाणं ॥ २३ ॥
दीप्ततप - ऋद्धिधारक जिनोंको नमस्कार हो ॥ २३ ॥
जिसके प्रभावसे चतुर्थ व शरीरमें षष्ठोपवासादि करते हुए साधुके अनुपम दीप्ति उत्पन्न होती है वह दीप्तऋद्धि कहलाती है । इस ऋद्धिको धारण करनेवाले साधु दीप्ततप कहे जाते हैं । उन दीप्ततप ऋद्धिधारक जिनोंको यहां नमस्कार किया गया है ।
णमो तत्ततवाणं ॥ २४ ॥
तप्ततपऋद्धिधारक जिनोंको नमस्कार हो ॥ २४ ॥
जिस तपके द्वारा मूत्र, मल और शुक्रादि तप्त अर्थात् भस्म हो जाते हैं वह तप्ततप है । इस सूत्र द्वारा उक्त ऋद्धिसे सहित जिनोंको नमस्कार किया गया है ।
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णमो महातवाणं ।। २५ ।।
महातपऋद्धि धारक जिनोंको नमस्कार हो ॥ २५ ॥
जो मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय; इन चार ज्ञानोंके सामर्थ्य से मन्दरपंक्ति व सिंहनिक्रीडित आदि सब प्रकारके महान् उपवासोंको किया करते हैं वे इस महातप ऋद्धिके धारक होते हैं । उन महातप ऋद्धिधारी मुनीवरोंको मन, वचन, व कायसे नमस्कार हो; यह सूत्र का अभिप्राय है ।
णमो घोरतवाणं ॥ २६ ॥
घोरतपऋद्धि धारक जिनोंको नमस्कार हो || २६॥
उपवासों में छह मासका उपवास, अवमोदर्य तपोंमें एक ग्रास, वृत्तिपरिसंख्याओं में चतुष्पथ (चौरस्ते) में भिक्षाकी प्रतिज्ञा, रसपरित्यागोंमें उष्ण जलयुक्त ओदनका भोजन; विविक्तशय्यासनों में वृक और व्याघ्र आदि हिंस्र जीवोंसे सेवित वनोंमें निवास; कायक्लेशों में तीव्र हिमालय आदिके
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