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कदिअणियोगद्दारे आगासगामिरिद्धिपरूवणा
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अथवा परोपदेशसे उत्पन्न बुद्धि भी वैनयकी प्रज्ञा कहलाती है। गुरुके उपदेशके विना तपश्चरणके बलसे जो बुद्धि उत्पन्न होती है उसका नाम कर्मजा प्रज्ञा है, अथवा औषधसेवाके बलसे जो उत्पन्न होती है उस बुद्धिको कर्मजा प्रज्ञा समझना चाहिये । अपनी जातिविशेषसे उत्पन्न बुद्धि परिणामिकी प्रज्ञा कही जाती है।
णमो आगासगामीणं ॥ १९ ॥ आकाशगामी जिनोंको नमस्कार हो ॥ १९ ॥ .
जिस ऋद्धिके प्रभावसे जीव खड़ा होकर, पद्मासन अथवा अन्य कायोत्सर्ग आदि आसनोंसे भी आकाशमें गमन कर सकता है वह आकाशगामी ऋद्धि कही जाती है। इस आकाशगामित्व ऋद्धिके धारकोंसे आकाशचारणोंमें यह विशेषता समझना चाहिये कि वे चारित्रके परिपालनमें कुशल होनेसे आकाशमें गमन करते हुए भी जीवोंको बाधा नहीं पहुंचाते हैं, तथा वे पादप्रक्षेपपूर्वकही आकाशमें गमन किया करते हैं। किन्तु आकाशगामिनी ऋद्धिके धारक पद्मासन और कायोत्सर्ग आदि अनेक प्रकारके आसनोंके साथ आकाशमें गमन करते हुए जीवपीड़ा परिहारमें समर्थ नहीं होते हैं। यहां आकाशगामी जिनोंको नमस्कार किया गया है।
णमो आसीविसाणं ॥२०॥ आशीविष जिनोंको नमस्कार हो ॥ २० ॥
जिस ऋद्धिके प्रभावसे 'तेरा शिरच्छेद हो' ऐसा कहनेपर जीवका तत्काल शिर कट जाता है, 'तू मर जा' ऐसा कहनेपर जीव सहसा मर जाता है, तथा 'तू निर्विष हो जा' ऐसा कहनेपर विषपीडित प्राणी तत्क्षण निर्विष हो जाता हैं, वह आशीविष ऋद्धि कहलाती है। यहां यह विशेषता समझनी चाहिये कि इस प्रकारके वचनशक्तिसे संयुक्त जिन कभी उस ऋद्धिके प्रभावसे अन्य जीवोंका निग्रह-अनुग्रह नहीं किया करते हैं, क्योंकि, वैसा करनेपर उनमें जिनत्वही नहीं रह सकता है। इस सूत्रके द्वारा इस आशीविष ऋद्धिके धारक जिनोंको नमस्कार किया गया है।
णमो दिद्विविसाणं ॥ २१ ॥ दृष्टिविष जिनोंको नमस्कार हो ॥ २१ ॥
जिस ऋद्धिके प्रभावसे उत्कृष्ट तपस्वी साधुके द्वारा क्रोधपूर्ण दृष्टिसे देखा गया प्राणी तत्काल विषसे संतप्त होकर मर जाता है वह दृष्टिविषऋद्धि कहलाती है । यहां दृष्टि शब्दसे मनको भी ग्रहण करना चाहिये। इससे दृष्टिविष ऋद्धिके धारक साधु चक्षुसे देखनेके. समान जिसके विषयमें मर जानेका मनसे विचार भी करते हैं वह तत्काल मर जाता है, यह अभिप्राय समझना चाहिये इस दृष्टिविष ऋद्धिके धारक जिनोंको यहां नमस्कार किया गया है ।
णमो उग्गतवाणं ॥ २२॥ उग्रतप ऋद्धिके धारक जिनोंको नमस्कार हो ॥ २२ ॥
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