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३, १४३ ]
जोगमग्गणार बंध-सामित्तं
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असंजद सम्मादिट्टि पहुड जाव अपुव्वकरण-पट्टु उवसमा खवा बंधा । अपुव्वकरणद्धार संखेज्जे भागे गंतूण बंधो वोच्छिज्जदि । एदे बंधा, अवसेसा अबंधा ।। १३६ ।। असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अपूर्वकरण- प्रविष्ठ उपशमक और क्षपक तक बन्धक हैं । अपूर्वकरण कालके संख्यात बहुभाग जाकर बन्ध व्युच्छिन्न होता है। ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं ॥ कायावादेण पुढविकाइय- आउकाइय- वणप्फदिकाइय - णिगोदजीव - बादर - सुहुमपज्जत्तापज्जत्ताणं बादरवणप्फदिकाइयपत्ते यसरीरपज्जत्तापज्जत्ताणं च पंचिंदियतिरिक्खअपज्जतभंगो ।। १३७ ॥
कायमार्गणानुसार पृथिवीकायिक, अप्कायिक, वनस्पतिकायिक और निगोद जीव; ये बादर, सूक्ष्म और इनके पर्याप्त व अपर्याप्त तथा बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त व अपर्याप्त जीवोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके समान है ॥ १३७ ॥
ते उकाइय-चाउकाइय-चादर - सुहुम-पज्जतापज्जत्ताणं सो चैव भंगो | णवरि विसेसो, मणुस्सा- मणु सगइ-मणु सगड़पाओग्गाणुपुवी उच्चागोदं णत्थि ।। १३८ ॥
तेजकायिक और वायुकायिक एवं इनके बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त व अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा भी पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके ही समान है । विशेषता केवल यह है कि मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र ये प्रकृतियां इनके सम्भव नहीं हैं ॥ १३८ ॥
तसकाइय-तसकाइयपज्जत्ताणमोघं दव्वं जाव तित्थयरे ति ।। १३९ ।।
कायिक और त्रसकायिक पर्याप्तोंकी तीर्थंकर प्रकृति तक प्रकृत प्ररूपणा ओघके समान जानना चाहिये ॥ १३९ ॥
जोगाणुवादेण पंचमणजोगि - पंचवचिजोगि - कायजोगीसु ओघं णेयव्वं जाव तित्थयति ॥ १४० ॥
योगमार्गणानुसार पांच मनोयोगी, पांच वचनयोगी और काययोगियोंमें तीर्थंकर प्रकृति तक ओघ के समान जानना चाहिये || १४० ॥
सादावेदणीयस्स को बंधो को अबंधो ? मिच्छाइट्टि पहुडि जाव सजोगिकेवली बंधा । एदे बंधा अबंधा णत्थि ॥ १४१ ॥
सातावेदनीयका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगिकेवली तक बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं है ॥ १४१ ॥
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ओरालियकायजोगीणं मणुसगइभंगो ।। १४२ ॥
औदारिककाययोगियोंकी प्ररूपणा मनुष्यगतिके समान है ॥ १४२ ॥ वरि विसेसो, सादावेदणीयस्स मणजोगिभंगो ॥ १४३ ॥
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