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कदिअणियोगद्दारे संभिण्णसोदित्तपरूवणा
[ ५१३ पद प्रमाणपद और मध्यमपद आदिके भेदसे अनेक प्रकारका है। उनमेंसे यहां प्रमाण और मध्यम आदि पदों का प्रयोजन न होनेसे बीजपदको ग्रहण करना चाहिये । जो बुद्धिपदका अनुसरण या अनुकरण करती है वह पदानुसारी बुद्धि कही जाती है । अभिप्राय यह कि बीजबुद्धिसे बीजपदको जानकर यहां यह इन अक्षरोंका लिंग होता है और इनका नहीं; इस प्रकार विचार करके जो बुद्धि समस्त श्रुतके अक्षर-पदोंको ग्रहण किया करती है उसे पदानुसारी बुद्धि समझना चाहिये । वह पदानुसारी बुद्धि अनुसारी, प्रतिसारी और तदुभयसारीके भेदसे तीन प्रकारकी है । जो बुद्धि बीजपद से अवस्तन पदोंको ही बीजपदस्थित लिंगसे जानती है वह प्रतिसारी बुद्धि कही जाती है । जो इसके विपरीत उससे उपरिम पदोंको ही जानती है वह अनुसारी बुद्धि कहलाती है । जो उक्त बीजपदके पार्श्वभागों में स्थित पदोंको नियमसे अथवा विना नियम भी जानती है उसे तदुभयसारी बुद्धि जानना चाहिये । यहां इन पदानुसारी जिनोंको नमस्कार किया गया है ।
णमो संभिण्णसोदाराणं ।। ९ ।।
संभिन्न श्रोता जिनोंको नमस्कार हो ॥ ९ ॥
जो श्रोत्रेन्द्रिय श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायके प्रकृष्ट क्षयोपशमसे अनेक अक्षरात्मक और अक्षरात्मक शब्दोंको एक साथ ग्रहण कर सकते हैं वे संभिन्नश्रोता कहलाते हैं । बारह योजन लंबे और नौ योजन चौड़े चक्रवर्तीके कटकमें स्थित हाथी, घोड़ा, ऊंट और मनुष्य आदि के एक साथ उत्पन्न हुए अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक शब्दोंको पृथक् पृथक् समान समय में ही ग्रहण करने में समर्थ होते हैं, ऐसे संभिन्न श्रोता यदि चार अक्षौहिणीके हाथी व घोड़ा आदि अपनी भाषामें एक साथ बोलते है तो उनके शब्दोंको अलग अलग एक साथ सुनकर उनका उत्तर दे सकते हैं । उन संभिन्नश्रोता जिनोंको नमस्कार हो ।
णमो उजुमदीणं ॥ १० ॥
ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानियोंको नमस्कार हो ॥ १० ॥
ऋजुका अर्थ सरल या वक्रता से रहित होता है । मतिसे अभिप्राय दूसरेकी मति (विचारकोटि) स्थित पदार्थका है । इससे यह अभिप्राय हुआ कि जो सरलतापूर्वक दूसरे के मनोगत, वचनगत और कायगत पदार्थको जानते हैं वे ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञानी कहलाते हैं । ये ऋजुमति - मन:पर्ययज्ञानी द्रव्यकी अपेक्षा जघन्यसे औदारिक शरीरकी एक समय में होनेवाली निर्जराको तथा उत्कर्ष से चक्षुइन्द्रियकी एक समय में निर्जराको जानते हैं । क्षेत्रकी अपेक्षा वे जघन्यसे गव्यूतिपृथक्त्व ( ३ कोससे ९ कोस तक ) और उत्कर्षसे योजनपृथक्त्व प्रमाण क्षेत्रवर्ती अर्थको जानते हैं । कालकी अपेक्षा जघन्यसे अतीत व अनागत इन दो भवों ( वर्तमान भवके साथ तीन भवों) और उत्कर्षसे सात भवों (वर्तमान भवके साथ आठ भवों ) को जानते हैं । भावकी अपेक्षा वे जघन्यसे जघन्य द्रव्यवर्ती और उत्कर्षसे उत्कृष्ट द्रव्यवर्ती तत्प्रायोग्य असंख्यातवे भाग मात्र भावों (पर्यायों) को
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