Book Title: Shatkhandagam
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, 
Publisher: Walchand Devchand Shah Faltan

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Page 599
________________ छक्खंडागमे बंध-सामित्त-विचओ [ ३, ४३ जिन जीवोंके इस तीर्थंकर नाम - गोत्रकर्मका उदय होता है वे उसके उदयसे देव, असुर और मनुष्य लोकके अर्चनीय, पूजनीय, वंदनीय, नमस्करणीय, नेता, धर्म-तीर्थके कर्ता, जिन व केवली होते हैं ॥ ४२ ॥ ४७४ ] जल, चन्दन, पुष्प, नैवेद्य एवं फल आदिके द्वारा अपनी भक्तिको प्रकाशित करना; इसका नाम अर्चा है । उक्त द्रव्योंके साथ इन्द्रध्वज, कल्पवृक्ष व महामह आदि विशेष यज्ञोंके अनुष्ठानको पूजा कहा जाता है । हे भगवन् ! आप आठ कर्मोंसे रहित व केवलज्ञानसे समस्त चराचर लोकके ज्ञाता द्रष्टा हैं, इस प्रकारकी प्रशंसाका नाम वंदना है। पांच अंगोंसे जिनेन्द्रके चरणोंमें गिरना, यह नमस्कार कहलाता है । रत्नत्रयस्वरूप धर्मसे चूंकि संसाररूप समुद्रको तरा जाता है, वह तीर्थ कहा जाता है । इस धर्म-तीर्थके कर्ता जिन, केवली व नेता हुआ करते हैं; यह सूत्रका अभिप्राय समझना चाहिये । आदेसेग गदियाणुवादेण णिरयगदीए रइएस पंचणाणावरण- छदसमावरण-सादासाद- बारस कसाय- पुरिसवेद - हस्स - रदि - अरदि - सोग-भय-दुर्गुछा- मणुसगदि-पंचिंदियजादि-ओरालिय- तेजा कम्म यसरीर-समचउर ससंठाण - ओरालियस रीरअंगोवंग वज्जरिसहसंघडण वण्ण-गंधरस- फास मणुस गइपाओग्गाणुपुव्त्रि- अगुरुलहुग-उवघाद - परघाद- उस्सास-पसत्थविहायगदि-तसबादर - पज्जत्त - पत्तेयसरीर-थिराथिर - सुहासुह-सुभग- सुस्सर - आदेज्ज - जस कित्ति - अजसकित्तिणिमिणुच्चागोद-पंचं तराइयाणं को बंधो को अबंधो १ ॥ ४३ ॥ आदेशकी अपेक्षा गतिमार्गणानुसार नरकगतिमें नारकियोंमें पांच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रर्षभसंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अंतराय; इन कर्मोंका कौन बन्धक और कौन अबन्धक है ? ॥ ४३ ॥ मिच्छाइट्ठिप्पहुडि जाव असंजदसम्मादिट्ठी बंधा । एदे बंधा अबंधा णत्थि ॥४४॥ मिथ्यादृष्टिको आदि लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक बन्धक हैं । ये बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं ॥ ४४ ॥ णिद्दाणिद्दा - पयलापयला-थीण गिद्धि-अणंताणुबंधिकोध-माण - माया-लोभ- इत्थिवेदतिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-चउसंठाण- चउसंघडण तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुव्वि-उज्जोव - अप्पसत्थविहाय - दुभग- दुस्सर - अणादेज्ज-णीचागोदाणं को बंधो को अबंधो ? ॥ ४५ ॥ निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया व लोभ, स्त्रीवेद, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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