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४७३ ] ओघेण बंध-सामित्तपरूपणा
[ ३, ४२ ९. सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमें अवस्थित होनेका नाम समाधि है । उसको समीचीन रीतिसे धारण करना या सिद्ध करना, यह साधुओंकी समाधिसंधारणता है।
१०. आपद्ग्रस्त साधुके विषयमें जो परिचर्या आदि की जाती है उसका नाम वैयावृत्य है। जीव जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, अर्हद्भक्ति एवं प्रवचनवत्सलता आदिसे संयुक्त होता हुआ वैयावृत्यमें प्रवृत्त होता है, यह साधुओंकी वैयावृत्ययोगयुक्तता कहलाती है ।
११. जो घातिचतुष्टयको अथवा आठों ही कर्मोंको नष्ट करके समस्त पदार्थोंके ज्ञाता द्रष्टा हो चुके हैं वे (सकल व निकल परमात्मा) अरहंत कहलाते हैं। उनमें भक्ति रखना- तदुपदिष्ट अनुष्ठानमें प्रवृत्त होना, इसे अरहंतभक्ति कहते हैं ।
१२. बारह अंगोंके पारगामी बहुश्रुत कहलाते हैं। उनमें भक्ति रखना-उनके द्वारा कथित आगमार्थका चिन्तन करना, यह बहुश्रुतभक्ति कहलाती है ।
१३. 'प्र' का अर्थ प्रकृष्ट या श्रेष्ठ (सर्वज्ञ ) होता है, उस प्रकृष्ट अर्थात् सर्वज्ञका जो वचन (वाणी) है वह प्रवचन कहा जाता है । इस निरुक्तिके अनुसार सिद्धान्त या बारह अंगोंको प्रवचन समझना चाहिये । इस प्रवचनमें भक्ति रखना-उसमें प्ररूपित क्रियाओंका अनुष्ठान करना, इसे प्रवचनभक्ति कहा जाता है।
१४. बारह अंगस्वरूप प्रवचनमें होनेवाले देशव्रती, महाव्रती एवं असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंको भी प्रवचन कहा जाता है। उनमें अनुराग रखनेका नाम प्रवचनवत्सलता है ।
१५. आगमार्थका नाम प्रवचन है । उसकी कीर्तिको विस्तृत करना या बढ़ाना यह प्रवचनप्रभावनता कहलाती है।
१६. अभीक्ष्ण-अभीक्ष्णका अर्थ 'बार बार' तथा ज्ञानोपयोगका अर्थ भावश्रुत और द्रव्यश्रुत होता है । इस दोनों प्रकारके श्रुतमें निरन्तर उद्युक्त रहमा, इसे अभीक्ष्ण-अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता समझनी चाहिये।
इन सोलह कारणोंसे तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध होता है । द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा पृथक पृथक् एक एक कारणमें भी चूंकि अन्य सब कारणोंका अन्तर्भाव होता है, अत एव एक एक कारणसे भी उक्त तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध माना गया है । अथवा, सम्यग्दर्शनके होनेपर शेष पन्द्रह कारणोंमें एक दो आदि अन्य कारणोंका भी संयोग होनेपर उस तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध होता है, ऐसा समझना चाहिये।
जस्स इणं तित्थयरणाम-गोदकम्मस्स उदएण सदेवासुर-माणुसस्स लोगस्स अच्चणिज्जा पूजणिज्जा वंदणिज्जा णमंसणिज्जा णेदारा धम्म-तित्थयरा जिणा केवलिणो हवंति ॥ ४२ ॥
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