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छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
२,११,१५६
ज्ञानमार्गणाके अनुसार मनःपर्ययज्ञानी जीव सबसे स्तोक हैं ॥ १५० ॥ उनसे अवधिज्ञानी असंख्यातगुणे हैं ॥ १५१ ॥ उनसे आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी दोनों ही तुल्य विशेष अधिक हैं ॥ १५२ ॥ उनसे विभंगज्ञानी असंख्यातगुणे हैं ॥ १५३ ॥ उनसे केवलज्ञानी अनन्तगुणे हैं ॥ १५४ ॥ उनसे मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानी दोनों ही तुल्य व अनन्तगुणे हैं ॥ १५५॥
___ संजमाणुवादेण सव्वत्थोवा संजदा ॥१५६।। संजदासंजदा असंखेज्जगुणा ॥१५७॥ व संजदा णेव असंजदा व संजदासजदा अणंतगुणा ॥ १५८ ॥ असंजदा अणंतगुणा ।।
__ संयममार्गणानुसार संयत जीव सबसे स्तोक हैं ॥ १५६ ॥ संयतोंसे संयतासंयत असंख्यातगुणे हैं ॥ १५७ ॥ संयतासंयतोंसे न संयत न असंयत न संयतासंयत ऐसे सिद्ध जीव अनन्तगुणे हैं ॥ १५८ ॥ उनसे असंयत अनन्तगुणे हैं ॥ १५९ ॥
इसी मार्गणामें अन्य प्रकारसे भी अल्पबहुत्व कहते हैं
सव्वत्थोवा सुहुमसांपराइय-सुद्धिसंजदा ॥१६०॥ परिहारसुद्धिसंजदा संखेज्जगुणा ॥१६१॥ जहाक्खाद-विहार-सुद्धिसंजदा संखेज्जगुणा ॥ १६२ ॥ सामाइ-च्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा दो वि तुल्ला संखेज्जगुणा ॥ १६३ ॥ संजदा विसेसाहिया ॥ १६४॥ संजदासंजदा असंखेज्जगुणा ॥१६५ ॥ णेव संजदा व असंजदा व संजदासजदा अणंतगुणा ॥ १६६ ॥ असंजदा अणंतगुणा ॥ १६७ ॥
सूक्ष्मसाम्परायिक-शुद्धिसंयत जीव सबमें स्तोक हैं ॥ १६० ॥ उनसे परिहार-शुद्धिसंयत संख्यातगुणे हैं ॥ १६१ ॥ उनसे यथाख्यात-विहार-शुद्धिसंयत संख्यातगुणे हैं ॥ १६२ ॥ उनसे सामायिक-शुद्धिसंयत और छेदोपस्थापना-शुद्धिसंयत दोनों ही तुल्य व संख्यातगुणे हैं ॥ १६३ ॥ उनसे संयत विशेष अधिक हैं ॥ १६४ ॥ उनसे संयतासंयत असंख्यातगुणे हैं ॥ १६५ ॥ उनसे न संयत न असंयत न संयतासंयत ऐसे सिद्ध जीव अनन्तगुणे हैं ॥ १६६ ॥ उनसे असंयत अनन्तगुणे हैं ॥ १६७॥
अब यहां तीव्र, मन्द और मध्यम स्वरूपसे स्थित संयमका अल्पबहुत्व कहा जाता है
सव्वत्थोवा सामाइयच्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदस्स जहणिया चरित्तलद्धी ॥१६८॥ परिहारसुद्धिसंजदस्स जहणिया चरित्तलद्धी अणंतगुणा ॥ १६९ ॥ तस्सेव उक्कस्सिया चरित्तलद्धी अणंतगुणा ॥ १७० ॥ सामाइयच्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदस्स उक्कस्सिया चरित्तलद्धी अणंतगुणा ॥ १७१ ॥ सुहुमसांपराइय-सुद्धिसंजदस्स जहणिया चरित्तलद्धी अणंतगुणा ॥ १७२ ॥ तस्सेव उक्कस्सिया चरित्तलद्धी अणंतगुणा ॥ १७३ ॥ जहाक्खादविहार-सुद्धिसंजदस्स अजहण्ण-अणुक्कस्सिया चरित्तलद्धी अणंतगुणा ॥ १७४ ॥
___ सामायिक छेदोपस्थापना-शुद्धिसंयतकी जघन्य चारित्रलब्धि सबमे स्तोक हैं ॥ १६८ ॥ उससे परिहार-शुद्धिसंयतकी जघन्य चारित्रलब्धि अनन्तगुणी है ॥ १६९ ॥ इससे उसीकी उत्कृष्ट
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