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सिरि-भगवंत-पुप्फदंत-भूदबलि-पणीदो छक्खंडागमो
. तस्स
तदियखंडो ३. बंध-सामित्त-विचओ
जो सो बंधसामित्तविचओ णाम तस्स इमो दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य ॥१॥
जो वह बन्धस्वामित्वविचय है उसका यह निर्देश ओघ और आदेशकी अपेक्षासे दो प्रकारका है ॥ १॥
मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगके निमित्तसे जो जीव एवं कर्मोका एकत्वपरिणाम होता है उसे वन्ध कहते हैं। विचय, विचारणा, मीमांसा और परीक्षा ये समानार्थक शब्द हैं। चूंकि इस अनुयोमद्वारमें उक्त बन्धके स्वामियोंका विचार या मीमांसा की गई है, अतएव यह अनुयोगद्वार बन्ध-स्वामित्वविचय इस नामसे कहा जाता है। उस बन्ध-स्वामित्वविचयका यह निर्देश ओघ और आदेशकी अपेक्षा दो प्रकारका है।
___ अब ओघकी अपेक्षा बन्धस्वामित्वका विचार करते हुए सर्वप्रथम चौदह गुणस्थान जाननेके योग्य हैं, यह सूचित करनेके लिये आगेका सूत्र आता है
: ओघेण बंधसामित्तविचयस्स चोइस जीवसमासाणि णादव्वाणि भवति ॥२॥ 'ओघकी अपेक्षा बन्धस्वामित्वविचयके विषयमें चौदह जीवसमास जानने योग्य हैं ॥२॥
आगे उन्हीं चौदह जीवसमासोंका (गुणस्थानोंका) नामनिर्देश किया जाता है
मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी संजदासंजदा पमत्तसंजदा अप्पमत्तसंजदा अपुवकरण-पइट्ठ-उवसमा खवा अणियट्टि-चादर-सांपराइयपइ8उवसमा खवा सुहुम-सांपराइय-पइट्ठउवसमा खवा उवसंत-कसायचीयराय-छदुमत्था खीणकसाय-चीयराय-छदुमत्था सजोगिकेवली अजोगिकेवली ॥३॥
मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयत्तासंयत, प्रमत्तछ. ५९
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