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एगजीवेण कालाणुगमे सम्मत्तमग्गणा
जीव भव्यसिद्धिक अनादि-सान्त काल रहते हैं ॥ १८४ ॥ तथा वे भव्यसिद्धिक सादि-सान्त काल भी रहते हैं ॥ १८५॥
यद्यपि अभव्य समान भव्य जीवोंकी अपेक्षा भव्यत्वका काल अनादि-अनन्त भी सम्भव है । परन्तु यहां शक्तिका अधिकार होनेसे उसका काल अनादि-अनन्त नहीं निर्दिष्ट किया गया है। उसकी सादिताका कारण यह है कि जीव जब तक सम्यक्त्वको नहीं प्राप्त करता है तब तक उसका भव्यत्व भाव अनादि-अनन्त है, क्योंकि, तब तक उसके संसारका अन्त नहीं है। परन्तु जब वह उस सम्यक्त्वको प्राप्त कर लेता है तब उसका वह भव्यत्व भाव भिन्न ही हो जाता है, क्योंकि, उस समय उसका संसार अधिकसे अधिक अर्ध पुद्गलपरिवर्तन मात्र ही शेष रहता है। इसी अभिप्रायसे यहां भव्यत्वभावको सादि बतलाया है । वस्तुतः द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा उसमें सादिता सम्भव नहीं है।
अभवसिद्धिया केवचिरं कालादो होति ? ॥ १८६ ॥ जीव अभव्यसिद्धिक कितने काल रहते हैं ? ॥ १८६ ॥ अणादिओ अपज्जवसिदो ॥ १८७॥ जीव अभव्यसिद्धिक अनादि-अनन्त काल तक रहते हैं ॥ १८७ ॥ सम्मत्ताणुवादेण सम्मादिद्वी केवचिरं कालादो होंति ? ॥ १८८ ॥ सम्यक्त्वमार्गणाके अनुसार जीव सम्यग्दृष्टि कितने काल रहते हैं ? ॥ १८८ ॥ जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १८९ ॥ जीव सम्यग्दृष्टि कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक रहते हैं ॥ १८९ ॥ उक्कस्सेण छावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ १९०॥ अधिकसे अधिक वे साधिक छयासठ सागरोपम काल तक सम्यग्दृष्टि रहते हैं ॥ १९०॥ खइयसम्माइट्ठी केवचिरं कालादो होति ? ॥ १९१ ॥ जीव क्षायिकसम्यग्दृष्टि कितने काल रहते हैं ? ॥ १९१ ॥ जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ १९२ ॥ उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि सादिरेयाणि ।।
जीव क्षायिकसम्यग्दृष्टि कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक रहते हैं ॥ १९२ ॥ अधिकसे अधिक वे साधिक तेतीस सागरोपम काल तक क्षायिकसम्यग्दृष्टि रहते हैं ॥ १९३ ॥
वेदगसम्माइट्ठी केवचिरं कालादो होंति ? ॥ १९४ ॥ जीव वेदकसम्यग्दृष्टि कितने काल रहते हैं ? ॥ १९४ ॥ जहण्णण अंतोमुहुत्तं ॥ १९५ ॥ उक्कस्सेण छावद्विसागरोवमाणि ॥ १९६ ॥ जीव वेदकसम्यग्दृष्टि कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक रहते हैं ॥ १९५ ॥ अधिकसे
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