________________
२, ९, २६ ] णाणाजीवेण अंतराणुगमे जोगग्मणा
[ ४४१ भवणवासियप्पहुडि जाव सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवा देवगदिभंगो ॥ १४ ॥
भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि-विमानवासी देवों तक देवोंके अन्तरकी प्ररूपणा देवगतिके अन्तरके समान है ॥ १४ ॥
इंदियाणुवादेण एइंदिय-चादर-सुहम-पज्जत्त-अपज्जत्त बीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदियपंचिंदिय-पज्जत्त-अपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥१५॥ णस्थि अंतरं ॥१६॥ णिरंतरं ॥ १७ ॥
इन्द्रियमार्गणाके अनुसार एकेन्द्रिय, एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय, द्वीन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्त, चतुरिन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्त तथा पंचेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्त जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? ॥१५॥ उनका अन्तर नहीं होता है ॥ १६ ॥ वे निरन्तर हैं ॥ १७ ॥
कायाणुवादेण पुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइय - वाउकाइय-वणप्फदिकाइयणिगोदजीव-बादर-सुहुम-पज्जत्ता अपज्जत्ता बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीर-पज्जत्ता अपज्जत्ता तसकाइय-पज्जत्त-अपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥१८॥ णत्थि अंतरं ॥१९॥ णिरंतरं ॥२०॥
कायमार्गणाके अनुसार पृथिवीकायिक, पृथिवीकायिक पर्याप्त-अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त-अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्तअपर्याप्त; ये नौ पृथिवीकायिक जीव, इसी प्रकार नौ अकायिक, नौ तेजकायिक, नौ वायुकायिक, नौ वनस्पतिकायिक और नौ निगोद जीव; तथा बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त-अपर्याप्त; तथा त्रसकायिक व त्रसकायिक पर्याप्त-अपर्याप्त जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? ॥१८॥ उनका अन्तर नहीं होता ॥१९॥ ये सब जीवराशियां निरन्तर हैं ॥२०॥
जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगि-कायजोगि-ओरालियकायजोगि-ओरालियमिस्सकायजोगिचेउब्वियकायजोगि-कम्मइयकायजोगीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि? ॥ २१ ॥ पत्थि अंतरं ॥ २२ ॥ णिरंतरं ॥ २३ ॥
योगमार्गणाके अनुसार पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी और कार्मणकाययोगी जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? ॥ २१ ॥ उनका अन्तर नहीं होता है ॥ २२ ॥ ये जीवराशियां निरन्तर हैं ॥ २३ ॥
वेउव्वियमिस्सकायजोगीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ २४ ॥ जहण्णेण एगसमयं ॥ २५ ॥ उक्कस्सेण बारहमुहुत्तं ॥ २६ ॥
छ. ५६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org