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२, २, १४०]
एगजीवेण कालाणुगमे णाणमग्गण्णा
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अकसाई अवगदवेदभगो ॥ १३१॥ अकषायी जीवोंके कालकी प्ररूपणा अपगतवेदियोंके समान है ॥ १३१ ॥ णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी सुदअण्णाणी केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १३२ ॥ ज्ञानमार्गणाके अनुसार जीव मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी कितने काल रहता है ? ।। १३२॥ अणादिओ अपजवसिदो ।। १३३ ॥ मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंका काल अनादि-अनन्त है ॥ १३३ ॥
उक्त दोनों मिथ्याज्ञानियोंका यह अनादि-अनन्त काल अभव्य व अभव्य समान भव्य जीवकी अपेक्षासे निर्दिष्ट किया गया है।
अणादिओ सपजवसिदो ॥१३४ ॥ भव्य जीवकी अपेक्षासे उक्त दोनों अज्ञानियोंका काल अनादि-सान्त है ॥ १३४ ॥ . सादिओ सपञ्जवसिदो ॥ १३५ ॥ उक्त दोनों अज्ञानियोंका काल सादि-सान्त है ॥ १३५ ॥
जो भव्य जीव सम्यग्ज्ञानसे मिथ्याज्ञानको प्राप्त हुआ है उसकी अपेक्षा उक्त दोनों अज्ञानियोंका काल सादि-सान्त भी पाया जाता है ।
जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स इमो णिद्देसो-जहण्णण अंतोमुहत्तं ॥१३६॥
जो वह सादि-सान्त काल है उसका निर्देश इस प्रकार है-वह सादि-सान्त काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त मात्र है ॥ १३६॥
इसका कारण यह है कि सम्यग्ज्ञानसे मिथ्याज्ञानको प्राप्त हुआ भव्य जीव कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी रहता ही है ।
उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूणं ॥ १३७ ॥
जीव मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी अधिकसे अधिक कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल तक ही रहता है॥ १३७ ॥
विभंगणाणी केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १३८ । जीव विभंगज्ञानी कितने काल रहता है ? ॥ १३८ ॥ जहण्णेण एगसमओ ॥ १३९ ॥ जीव विभंगज्ञानी कमसे कम एक समय रहता है ॥ १३९ ।। उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि ॥ १४०॥ अधिकसे अधिक वह कुछ कम तेतीस सागरोपम काल तक विभंगज्ञानी रहता है ।
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