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२, १, ९]
बंधगाबंधगपरूवणा
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नरकगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, असंप्राप्तासृपाटिकासंहनन, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आताप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण; इन सोलह प्रकृतियोंके बन्धका कारण है।
अनन्तानुबन्धीका उदय निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया व लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यंच आयु, तिर्यंचगति, न्यग्रोधपरिमण्डल आदि चार संस्थान, वज्रनाराच आदि चार संहनन, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र; इन पच्चीस प्रकृतियोंके बन्धका कारण है।
अप्रत्याख्यानावरण कषायका उदय अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया व लोभ, मनुष्यायु, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वर्षभसंहनन और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी; इन दस प्रकृतियोंके बन्धका कारण है ।
। प्रत्याख्यानावरण कषायका उदय प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार प्रकृतियोंके बन्धका कारण है।
असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति; इन छह प्रकृतियोंके बन्धका कारण प्रमाद है। चार संज्वलन और नौ नोककषायोंके तीव्र उदयका नाम प्रमाद है। इसका अन्तर्भाव उक्त चार बन्धकारणोंमेंसे कषायमें समझना चाहिये। देवायु (अप्रमत्तगुणस्थान तक ), निद्रा, प्रचला, ( अपूर्वकरणके प्रथम सप्तम भाग तक), देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वक्रियिक, आहारक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिक और आहारक शरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण, तीर्थंकर (अपूर्वकरणके सात भागोंमेंसे छठे भाग तक); हास्य, रति, भय, जुगुप्सा (अपूर्वकरणके अन्तिम भाग तक), चार संज्वलन और पुरुषवेद ( अनिवृत्तिकरण तक); इन प्रकृतियोंके बन्धका कारण यथासम्भव कषायका उदय है।
पांच ज्ञानावरणीय, चक्षुदर्शनावरणीय आदि चार दर्शनावरणीय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय ( सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक ) इन सोलह प्रकृतियोंके बन्धका कारण सामान्य कषायका उदय है। सातावेदनीयके बन्धका कारण एक मात्र योग है।
इंदियाणुवादेण एइंदिया बंधा वीइंदिया बंधा तीइंदिया बंधा चदुरिंदिया बंधा।
इन्द्रियमार्गणाके अनुसार एकेन्द्रिय जीव बन्धक हैं, द्वीन्द्रिय बन्धक हैं, त्रीन्द्रिय बन्धक हैं, और चतुरिन्द्रिय बन्धक हैं ॥ ८॥
पंचिंदिया बंधा वि अस्थि अबंधा वि अस्थि ॥९॥ पंचेन्द्रिय जीव बन्धक भी हैं और अबन्धक भी हैं ॥ ९ ॥
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