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२, १, ९१] सामित्ताणुगमे आहारमग्गणा
[ ३५९ जीव मिथ्यादृष्टि कैसे होता है ? ॥८०॥ जीव मिथ्यादृष्टि मिथ्यात्व कर्मके उदयसे होता है। सणियाणुवादेण सण्णी णाम कधं भवदि ? ॥ ८२ ॥ खओवसमियाए लद्धीए ॥
संज्ञीमार्गणाके अनुसार जीव संज्ञी कैसे होता है ? ॥ ८२ ॥ जीव संज्ञी क्षायोपशमिक लब्धिसे होता है ॥ ८३ ॥
असण्णी णाम कधं भवदि ? ॥ ८४ ॥ ओदइएण भावेण ॥ ८५ ।। जीव असंज्ञी कैसे होता है ? ॥ ८४ ॥ जीव असंज्ञी औदयिक भावसे होता है ॥८५॥
व सण्णी णेव असण्णी णाम कधं भवदि ? ॥८६॥ खइयाए लद्धीए ॥ ८७॥
जीव न संज्ञी न असंज्ञी कैसे होता है ? ॥ ८६ ॥ जीव न संज्ञी न असंज्ञी क्षायिक लब्धिसे होता है ॥ ८७ ॥
ज्ञानावरणके निर्मूल विनाशसे जो जीवका परिणाम होता है उसका नाम क्षायिक लब्धि है। उससे जीवकी न संज्ञी और न असंज्ञी अवस्था होती है ।
आहाराणुवादेण आहारो णाम कधं भवदि ? ॥८८॥ ओदइएण भावेण ॥८९॥
आहारमार्गणाके अनुसार जीव आहारक कैसे होता है ? ॥८८॥ जीव आहारक औदयिक भावसे होता है ॥ ८९ ॥
औदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीन शरीर नामकर्मोके उदयसे जीव आहारक होता है, यह अभिप्राय समझना चाहिये ।
अणाहारो णाम कधं भवदि ? ॥९०॥ ओदइएण भावेण पुण खड्याए लद्धीए॥
जीव अनाहारक कैसे होता है ? ॥९०॥ जीव अनाहारक औदयिक भावसे तथा क्षायिक लब्धिसे होता है ॥ ९१ ॥
अभिप्राय यह है कि अयोगिकेवली और सिद्धोंके जो अनाहारक अवस्था होती है वह क्षायिक लब्धिसे होती है, क्योंकि, उनके क्रमशः घातिया कर्मोका और समस्त कर्मोका क्षय हो । चुका है। किन्तु विग्रहगतिमें जो अनाहारक अवस्था होती है वह औदयिक भावसे होती है, क्योंकि, विग्रहगतिमें सभी कर्मोका उदय पाया जाता है।
॥ एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्वानुयोगद्वार समाप्त हुआ ॥ १॥
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