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१, ९-२, ११७] जीवट्ठाण-चूलियाए ढाणसमुक्तित्तणं
[ २९७ ___ यहां संयत पदसे अपूर्वकरण गुणस्थानके सातवें भागसे लेकर सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तकके संयतोंका ग्रहण किया गया है। कारण उसका यह है कि एक उस यशःकीर्तिको छोड़कर शेष सब ही नामकर्मकी प्रकृतियां अपूर्वकरणके छठे भागमें बन्धसे व्युच्छिन्न हो जाती हैं, तथा वह यशःकीर्ति भी सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक ही बन्धको प्राप्त होती है; आगे नहीं ।
गोदस्स कम्मस्स दुवे पयडीओ. उच्चागोदं चेव णीचागोदं चेव ॥ ११० ॥ गोत्रकर्मकी दो ही प्रकृतियां हैं- उच्चगोत्र और नीचगोत्र ॥ ११० ॥ जं तं नीचागोदं कम्मं ॥ १११ ॥ जो नीचगोत्र कर्म है वह एकप्रकृतिक बन्धस्थान है ॥ १११ ॥ बंधमाणस्स तं मिच्छादिहिस्स वा सासणसम्मादिहिस्स वा ।। ११२ ॥
वह बन्धस्थान नीचगोत्र कर्मको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवके होता है ॥ ११२ ॥
कारण यह कि इसके आगे नीचगोत्रका बन्ध नहीं होता है । जं तं उच्चागोदं कम्मं ॥ ११३ ।। जो उच्चगोत्र कर्म है वह एकप्रकृतिक बन्धस्थान है ॥ ११३ ॥
बंधमाणस्स तं मिच्छादिद्विस्स वा सासणसम्मादिहिस्स वा सम्मामिच्छादिद्विस्स वा असंजदसम्मादिहिस्स वा संजदासंजदस्स वा संजदस्स वा ।। ११४ ॥
वह बन्धस्थान उच्चगोत्र कर्मको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयतके होता है ॥ ११४ ॥
अंतराइयस्स कम्मस्स पंच पयडीओ- दाणंतराइयं लाहंतराइयं भोगंतराइयं परिभोगंतराइयं वीरियंतराइयं चेदि ॥ ११५ ॥
अन्तराय कर्मकी पांच प्रकृतियां हैं.--- दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, परिभोगान्तराय और वीर्यान्तराय ॥ ११५॥
एदासिं पंचण्हं पयडीणमेक्क्रम्हि चेव हाणं ।। ११६ ॥ इन पांचों प्रकृतियोंका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ११६ ॥
बंधमाणस्स तं मिच्छादिहिस्स वा सासणसम्मादिहिस्स वा सम्मामिच्छादिहिस्स वा असंजदसम्मादिहिस्स वा संजदासंजदस्स वा संजदस्स वा ॥ ११७ ॥
वह बन्धस्थान उक्त पांचों अन्तराय प्रकृतियोंके बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयतके होता है ॥ ११७ ॥
यहां संयत शब्दसे दसवें गुणस्थान तकके संयतोंका ग्रहण करना चाहिए।
॥ स्थानसमुत्कीर्तन नामकी द्वितीय चूलिका समाप्त हुई ॥२॥
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