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१,९-६, २३ ]
जीवट्ठाण-चूलियाए उक्कस्सट्रिदिपरूपणा
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दस वाससदाणि आवाधा ॥ १७ ॥ पुरुषवेद आदि उक्त कर्मप्रकृतियोंका आबाधाकाल दस सौ वर्ष होता है ॥ १७ ॥ आबाधूणिया कम्मद्विदी कम्मणिसेओ ॥ १८ ॥ उन कर्मप्रकृतियोंकी आबाधाकालसे हीन कर्मस्थिति प्रमाण उनका कर्मनिषेक होता है ।
णउंसयवेद-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा णिरयगदी तिरिक्खगदी एइंदिय-पंचिंदियजादि-ओरालिय-घेउविय-तेजा-कम्मइयसरीर-हुंडसंठाण-ओरालिय-वेउव्वियसरीरअंगोवंग-- असंपत्तसेवट्टसंघडण-वण्ण-गंध-रस--फास-णिरयगदि--तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुत्री- अगुरुअलहुअ--उवघाद--परघाद--उस्सास--आदाव-उज्जोव-अप्पसत्थविहायगदि-तस-थावर-बादरपज्जत्त-पत्तेयसरीर-अथिर-असुभ-दुब्भग-दुस्सर-अणादेज- अजसकित्ति-णिमिण-णीचागोदाणं उक्कस्सगो ट्टिदिबंधो वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ ॥ १९ ॥
नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, नरकगति, तिर्यग्गति, एकेन्द्रियजाति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, असंप्राप्तासृपाटिकासंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुअलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण और नीचगोत्र; इन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध बीस कोडाकोड़ि सागरोवम मात्र होता है ॥ १९ ॥
वे वाससहस्साणि आवाधा ॥ २० ॥
पूर्व सूत्रोक्त इन नपुंसकवेदादि प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट कर्मस्थितिका आबाधाकाल दो हजार वर्ष होता है ॥ २०॥
आबाधूणिया कम्मट्ठिदी कम्मणिसेगो ॥ २१ ॥
उक्त नपुंसकवेदादि प्रकृतियोंकी आबाधाकालसे हीन कर्मस्थिति प्रमाण उनका कर्मनिषेक होता है ॥ २१ ॥
णिरयाउ-देवाउअस्स उक्कस्सओ हिदिबंधो तेत्तीस सागरोवमाणि ।। २२ ॥ नारकायु और देवायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तेतीस सागरोपम मात्र होता है ॥ २२ ॥ यह इन दोनों कर्माकी निषेकस्थिति है। पुवकोडितिभागो आबाधा ।। २३ ।।
नारकायु और देवायुका उत्कृष्ट आबाधाकाल पूर्वकोटि वर्षका त्रिभाग ( तीसरा भाग ) मात्र होता है ॥ २३ ॥
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