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१, ९-८, ३] जीवट्ठाण-चूलियाए पढमसम्मत्तुप्पत्तिपरूपणा
[३११ ८. अट्ठमी चूलिया एवदिकालट्ठिदिएहि कम्मेहि सम्मत्तं ण लहदि ॥ १॥ इतने काल प्रमाण स्थितिवाले कर्मोके द्वारा जीव सम्यक्त्वको नहीं प्राप्त करता है ॥१॥
यह देशामर्शक सूत्र है। इसलिए वहां इन कर्मोके जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिबन्ध, जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व, जघन्य व उत्कृष्ट अनुभागसत्त्व, तथा जघन्य व उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्वके होनेपर जीव सम्यक्त्वको नहीं प्राप्त करता है; यह अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए।
लभदि त्ति विभासा ॥२॥ प्रथम चूलिकागत प्रथम सूत्रमें पठित ‘लभदि ' इस पदकी व्याख्या की जाती है ॥२॥
अभिप्राय यह है कि जिन प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंका बन्ध; सत्त्व और उदीरणाके होनेपर जीव सम्यक्त्वको प्राप्त करता है उन प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंकी यहां प्ररूपणा की जाती है ।
एदेसिं चेव सव्वकम्माणं जावे अंतोकोडाकोडिट्ठिदि बंधदि तावे पढमसम्मत्तं लभदि ॥३॥
___जब यह जीव इन सब कर्मोकी अन्तःकोड़ाकोड़ि प्रमाण स्थितिको बांधता है तब वह प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करता है ॥ ३ ॥
इस सूत्रके द्वारा क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना और प्रायोग्य इन चार लब्धियोंकी प्ररूपणा की गई है। पूर्वसंचित कर्मोके अनुभागस्पर्धकोंका विशुद्धिके द्वारा प्रतिसमयमें शक्तिकी अपेक्षा उत्तरोत्तर अनन्तगुणे हीन होकर उदीरणाको प्राप्त होनेका नाम क्षयोपशमलब्धि है। उक्त क्रमसे उदीरणाको प्राप्त हुए उन अनुभागस्पर्धकोंके निमित्तसे सातावेदनीय आदि पुण्य प्रकृतियोंके बन्धका कारण तथा असातावेदनीय आदि पाप प्रकृतियोंके बन्धका विरोधक जो जीवका परिणाम होता है उसकी प्राप्तिको विशुद्धिलब्धि कहा जाता है। छह द्रव्यों और नौ पदार्थोके उपदेशका नाम देशनालब्धि है। इस देशना और उसमें परिणत आचार्यादिकोंकी प्राप्तिको तथा तदुपदिष्ट अर्थके ग्रहण व धारण करनेकी शक्तिकी प्राप्तिको देशनालब्धि कहते हैं। समस्त कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका घातकर उसे अन्तःकोडाकोडि प्रमाण स्थितिमें तथा उनके उत्कृष्ट अनुभागको घातकर उसे दो स्थानरूप (घातिया कर्मोके लता और दारुरूप तया अघातिया--पाप प्रकृतियों के नीम और कांजीररूप ) अनुभागमें स्थापित करनेका नाम प्रायोग्यलब्धि है।
ये चार लब्धियां भव्य और अभव्य दोनोंके ही समानरूपसे हो सकती हैं, परन्तु अन्तिम करणलब्धि एक मात्र भव्य जीवके ही होती है- वह अभव्यके सम्भव नहीं है ।
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