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३१४ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[ १, ९-८, १२ वह उक्त दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ करता है। इससे सुषमासुषमा आदि कालोंमें उसकी क्षपणाका निषेध समझना चाहिये ।
णिवओ पुण चदुसु वि गदीसु णिवेदि ॥ १२ ॥ परन्तु दर्शनमोहकी क्षपणाका निष्ठापक चारों ही गतियोंमें उसका निष्ठापन करता है ।
कृतकृत्यवेदक होनेके प्रथम समयसे लेकर आगेके समयमें दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाला जीव निष्ठापक कहा जाता है। सो वह पूर्वबद्ध आयुके वश चारों ही गतियोंमें उत्पन्न होकर उस दर्शनमोहनीयकी क्षपणाको पूर्ण करता है। जीव सम्यक्त्व प्रकृतिको अन्तिम फालिको नीचेके निषेकोंमें देनेसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक कृत्यकृत्यवेदक कहा जाता है।
सम्पत्तं पडिवज्जंतो तदो सत्तकम्माणमंतोकोडाकोडिं ठवेदि णाणावरणीयं दंसणावरणीयं वेदणीयं मोहणीयं णामं गोदं अंतराइयं चेदि ॥ १३॥
____ सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टिके द्वारा स्थापित सात कर्मोके स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्वकी अपेक्षा सम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाला जीव ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र और अन्तराय; इन सात कर्मोकी स्थितिको अन्तःकोडाकोडि प्रमाण स्थापित करता है ॥ १३ ॥
__चारित्तं पडिवज्जतो तदो सत्तकम्माणमंतोकोडाकोडिं विदि दुवेदि णाणावरणीय दसणावरणीयं वेदणीयं णामं गोदं अंतराइयं चेदि ॥ १४ ॥
उस प्रथमोपशम सम्यक्त्वके अभिमुख चरमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टिके स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्वकी अपेक्षा चारित्रको प्राप्त होनेवाला जीव ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र और अन्तराय; इन सात कर्मोकी स्थितिको अन्तःकोडाकोड़ि प्रमाग स्थापित करता है ॥ १४ ॥
___ अभिप्राय यह है कि प्रथमोपशम सम्यक्त्वके अभिमुख हुए अन्तिमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीवके उक्त सात कर्मोंका जितना स्थितिवन्ध और सत्त्व था उसकी अपेक्षा संघमासंयमके अभिमुख हुआ जीव संख्यातगुणे हीन स्थितिबन्धको और स्थितिसत्त्वको स्थापित करता है। इसकी अपेक्षा भी संयमके अभिमुख हुए अन्तिमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीवका स्थितिबन्ध और स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा हीन होता है।
सपुग्ण पुण चारित्तं पडिवज्जतो तदो चत्तारि कम्माणि अंतोमुहुत्तहिदि दुवेदि णाणावरणीयं दंसगावरणीयं मोहणीयमंतराइयं चेदि ॥ १५ ॥
सम्पूण चारित्रको प्राप्त करनेवाला जीव उसे उत्तरोत्तर हीन करता हुआ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय; इन चार कर्मोकी स्थितिको अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थापित करता है ।।
वेदगीयं बारसमुहुत हिदि ठोदि, णामा-गोदाणमट्ठमुहुत्तहिदि ठवेदि, सेसाणं कम्माणं भिण्णमुहुत्तहिदि ठवेदि ॥१६॥
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