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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१,९-६, २४
नारकायु और देवायुका बन्ध जिन मनुष्यों और तिर्यंचोंके होता है उनकी उत्कृष्ट आयु एक पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण होती है। उनके आगामी आयुका बन्ध भुज्यमान आयुके दो त्रिभागोंके (३) बीतनेपर हुआ करता है। अत एव आगामी भवकी आयुका बन्ध करते समय जो भुज्यमान आयुका एक त्रिभाग ( ३ ) शेष रहता है वही नारकायु और देवायुकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट आबाधाकाल होता है। जघन्य आबाधाकाल उनका असंक्षेपाद्धा काल होता है। इस असंक्षेपाद्धा कालके ऊपर और पूर्वकोटित्रिभागके नीचे सब उस आबाधाके मध्यम विकल्प होते हैं।
आबाधा ॥२४॥ पूर्वोक्त आबाधाकालके भीतर नारकायु और देवायुकी निषेकस्थिति बाधारहित होती है ।।
जिस प्रकार ज्ञानावरणादि कर्मोके समयप्रबद्धोंमें बन्धावलीके पश्चात् अपकर्षण, उत्कर्षण और परप्रकृतिसंक्रमणके द्वारा बाधा पहुंचा करती है उस प्रकार उनके द्वारा आयु कर्मके समयप्रबद्धोंमें बाधा नहीं पहुंचा करती है; इस अभिप्रायको प्रगट करनेके लिए इस पृथक् सूत्रकी रचना की गई है।
कम्मद्विदी कम्मणिसेओ ॥ २५ ॥ नारकायु और देवायुकी कर्मस्थिति प्रमाण ही उनका कर्मनिषेक होता है ॥ २५॥ तिरिक्खाउ-मणुसाउअस्स उक्कस्सओ द्विदिबंधो तिण्णि पलिदोवमाणि ॥२६॥ तिर्यगायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तीन पल्योपम मात्र होता है ॥ २६ ॥
यह इनकी निषेकस्थिति निर्दिष्ट की गई है, क्योंकि, तिर्यंच और मनुष्योंमें तीन पल्योपम मात्र औदारिकशरीरकी उत्कृष्ट स्थिति पायी जाती है ।
पुव्यकोडि तिभागो आवाधा ॥ २७ ॥ तिर्यगायु और मनुष्यायुका उत्कृष्ट आबाधाकाल पूर्वकोटिका त्रिभाग है ॥ २७ ॥ आबाधा ।। २८॥ इस आबाधाकालमें तिर्यगायु और मनुष्यायुकी निषेकस्थिति बाधारहित होती है ॥ २८ ॥ कम्महिदी कम्मणिसेगो ॥ २९॥ तिर्यगायु और मनुष्यायुकी कर्मस्थिति प्रमाण ही उनका कर्मनिषेक होता है ॥ २९॥
वीइंदिय-तीइंदिय-चउरिदिय-वामणसंठाण-खीलियसंघडण-सुहमअपज्जत्तसाधारणणामाणं उक्कस्सगो हिदिबंधो अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीओ ॥३० ।।
___ द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, वामनसंस्थान, कीलकसंहनन, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण; इन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अठारह कोडाकोडि सागरोपम मात्र होता है ॥
अट्ठारस वाससदाणि आबाधा ॥ ३१ ।। इन द्वीन्द्रियजाति आदि प्रकृतियोंका उत्कृष्ट आबाधाकाल अठारह सौ वर्ष मात्र होता है ।
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