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जट्टा - धूलिया उक्कस्सट्ठिदिपरूपणा
६. छट्टी चूलिया
hasarora कम्मेहि सम्मत्तं लब्भदि वा ण लब्भदि वा, ण लब्भदि त्ति विभासा ॥ १ ॥
१, ९-६, ६ ]
कितने कालकी स्थितिवाले कर्मोंके द्वारा जीव सम्यक्त्वको प्राप्त करता है, अथवा कितने कालकी स्थितिवाले कर्मोंके द्वारा वह उसे नहीं प्राप्त करता है, इस प्रश्नवाक्यके अन्तर्गत ' अथवा नहीं प्राप्त करता है' इस वाक्यांशकी व्याख्या करते हैं ॥ १ ॥
उन स्थितियोंका प्ररूपण करते हुए आचार्य प्रथमतः कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिके वर्णन के लिए उत्तर सूत्र कहते हैं-
एत्तो उक्कस्सडिदिं वण्णइस्लामो || २ ||
अब आगे उत्कृष्ट स्थितिका वर्णन करेंगे ॥ २ ॥
[ ३०.१
योगके वश कर्मस्वरूपसे परिणत हुए पुद्गलस्कन्ध कषायके अनुसार जितने काल तक जीवके साथ एकस्वरूपसे अवस्थित रहते हैं उतने कालका नाम स्थिति है । वह उत्कृष्ट, जघन्य और मध्यम स्वरूपसे अनेक प्रकारकी होती है । उनमें यहां उत्कृष्ट कर्मस्थितिकी प्ररूपणा की जाती है ।
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तं जहा ॥ ३ ॥
वह उत्कृष्ट स्थिति इस प्रकार है ॥ ३ ॥
पंचन्हं णाणावरणीयाणं णवण्हं दंसणावरणीयाणं असादावेदणीयं पंचहमंतराइयाणमुक्कसओ द्विदिबंधो तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ || ४ |
पांचों ज्ञानावरणीय, नवों दर्शनावरणीय, असातावेदनीय और पांचों अन्तराय; इन कर्मों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तीस कोड़ाकोड़ि सागरोपम है ॥ ४ ॥
अब आगे उनके आबाधाकालके प्रमाणका निर्देश किया जाता है-तिण्ण वाससहस्साणि आबाधा ।। ५ ।।
उक्त ज्ञानावरणीयादि कर्मोकी स्थितिका आबाधाकाल तीन हजार वर्ष होता है ॥ ५ ॥
बंधनेके पश्चात् कर्म जितने काल तक अपना फल देना प्रारम्भ नहीं करते हैं उतने कालका नाम आबाधाकाल है । पूर्वोक्त कर्मोकी स्थितिका यह उत्कृष्ट आबाधाकाल बतलाया गया है 1
आबाधूर्णिया कम्मट्ठदी कम्मणिसेओ || ६॥
पूर्वोक्त ज्ञानावरणादि कर्मोकी इस आवावाकालसे हीन कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेककाल होता है ॥ ६ ॥
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