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१,९-२,१०५] जीवट्ठाण-चूलियाए ढाणसमुक्कित्तणं
[२९५ ओग्गाणुपुव्वी अगुरुअलहुअ-उवधाद-परघाद-उस्सासं पसत्थविहायगदी तस-चादर-पज्जत्तपत्तेयसरीरं थिराथिराणमेक्कदरं सुभासुभाणमेक्कदरं सुभग-सुस्सर-आदेज्जं जसकित्तिअजसकित्तीणमेकदरं णिमिण-तित्थयरं, एदासिमेगूणतीसाए पयडीणमेकम्हि चेव हाणं ॥
__नामकर्मके देवगति सम्बन्धी उक्त पांच बन्धस्थानोंमें यह द्वितीय उनतीसप्रकृतिक बन्धस्थान है- देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीरअंगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुअलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर और अस्थिर इन दोनोंमेंसे कोई एक, शुभ और अशुभ इन दोनों से कोई एक, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश कीर्ति और अयशःकीर्ति इन दोनोंमेंसे कोई एक, निर्माण और तीर्थंकर नामकर्म; इन द्वितीय उनतीस प्रकृतियोंका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ १०२॥
__यहां स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ और यशःकीर्ति-अयशःकीर्ति इन सप्रतिपक्ष प्रकृतियोंके विकल्पसे आठ (२४२४२=८) भंग होते हैं।
देवगदिं पंचिंदिय-पज्जत्त-तित्थयरसंजुत्तं बंधमाणस्स तं असंजदसम्मादिहिस्स वा संजदासंजदस्स वा ॥ १०३ ॥
___ वह द्वितीय उनतीसप्रकृतिक बन्धस्थान पंचेन्द्रिय जाति, पर्याप्त और तीर्थंकर प्रकृतिसे संयुक्त देवगतिको बांधनेवाले असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयतके होता है ॥ १०३ ॥
तत्थ इमं पढमअट्ठावीसाए द्वाणं- देवगदी पंचिंदियजादी वेउव्विय-तेजाकम्मइयसरीरं समचउरससंठाणं वेउब्धियअंगोवंगं वण्ण-गंध-रस-फासं देवगदिपाओग्गाणुपुची अगुरुअलघुअ-उवघाद-परघाद-उस्सासं पसत्थविहायगदी तस-बादर-पज्जत्त-पत्ते यसरीरथिर-सुभ-सुभग-सुस्सर-आदेज्ज-जसकित्ति-णिमिणणामं, एदासिं पढमअट्टवीसाए पयडीणमेक्कम्हि चेव हाणं ॥१०४॥
नामकर्मके देवगति सम्बन्धी उक्त पांच बन्धस्थानोंमें यह प्रथम अट्ठाईसप्रकृतिक बन्धस्थान है- देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वक्रियिकशरीरअंगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुअलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति और निर्माण नामकर्म; इन प्रथम अट्ठाईस प्रकृतियोंका एक ही भावमें अवस्थान है ॥१०४॥
यहांपर अयशःकीर्तिका बन्ध नहीं होता है, क्योंकि, प्रमत्तसंयत गुणस्थानमें उसके बन्धका विनाश हो जाता है ।
देवगदिं पंचिंदिय-पज्जत्तसंजुत्तं बंधमाणस्स तं अप्पमत्तसंजदस्स वा अपुव्व करणस्स वा ॥ १०५ ॥
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