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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, ९-२, ९७
वैक्रियिकशरीरअंगोपांग, आहारकशरीरअंगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुअलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, निर्माण और तीर्थंकर; इन इकतीस प्रकृतियों का एक ही भाव अवस्थान है ॥ ९६ ॥
देवगदिं पंचिंदिय - पज्जत्त आहार - तित्थयरसंजुत्तं बंधमाणस्स तं अप्पमत्त संजदस्स वा अपुव्वकरणस्स वा ।। ९७ ।।
वह इकतीसप्रकृतिक बन्धस्थान, पंचेन्द्रियजाति, पर्याप्त, आहारकशरीर और तीर्थंकर नामकर्मसे संयुक्त देवगतिको बांधनेवाले अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरणसंयतके होता है ॥ ९७ ॥ तत्थ इमं तीसाए ठाणं जथा एकत्तीसाए भंगो, णवरि विसेसो तित्थयरं वज्र । दासिं तीसाए पयडीणमेक्कम्हि चेव द्वाणं ॥ ९८ ॥
नामकर्म देवगति सम्बन्धी उक्त पांच बन्धस्थानोंमें यह तीसप्रकृतिक बन्धस्थान है जो इकतीसप्रकृतिक बन्धस्थानके समान प्रकृतिकभंगवाला है । विशेषता यह है कि यहां एक तीर्थंकर प्रकृतिको छोड़ देना चाहिए । इन तीस प्रकृतियोंका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ९८ ॥
देवगर्दि पंचिदिय-पज्जत्त आहारसंजुत्तं बंधमाणस्सं तं अप्पमत्तसंजदस्स वा अपुव्वकरणस्स वा ।। ९९ ।।
वह तीसप्रकृतिक बन्धस्थान पंचेन्द्रिय जाति, पर्याप्त और आहारकशरीरसे संयुक्त देवगतिको बांधनेवाले अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरणसंयतके होता है ॥ ९९ ॥
तत्थ इमं पढमएगूणतीसाए द्वाणं जधा एकत्तीसाए भंगो, णवरि विसेसो आहारसरीरं वज्ज । एदासिं पढमएगूणतीसाए पयडीणं एक्कम्हि चेव द्वाणं ।। १०० ।। नामकर्मके देवगति सम्बन्धी उक्त पांच बन्धस्थानों में यह प्रथम उनतीसप्रकृतिक बन्धस्थान है जो इकतीसप्रकृतिक बन्धस्थानके समान प्रकृति भंगवाला है । विशेषता यह है कि यहां आहारकशरीर और तत्सम्बन्धी अंगोपांगको छोड़ देना चाहिए। इन प्रथम उनतीस प्रकृतियोंका एक ही भाव अवस्थान है ॥ १०० ॥
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देवगर्दि पंचिदिय - पज्जत्त - तित्थयरसंजुत्तं बंधमाणस्स तं अपमत्तसंजदस्स वा अपुव्वकरणस्स वा ॥ १०१ ॥
वह प्रथम उनतीसप्रकृतिक बन्धस्थान पंचेन्द्रिय जाति, पर्याप्त और तीर्थंकर प्रकृति से संयुक्त देवगतिको बांधनेवाले अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरणसंयतके होता है ॥ १०१ ॥
तत्थ इमं विदियएगूणतीसाए द्वाणं- देवगदी पंचिंदियजादी वेउव्विय-तेजाकम्मइयसरीरं समचउरससंठाणं वेउव्वियसरीरअंगोवंगं वण्ण-गंध-रस- फासं देवगदिपा
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