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१,९-२, ७२] जीवट्ठाण-चूलियाए ठाणसमुक्कित्तणं
[२८७ तत्थ इमं तदियतीसाए द्वाणं-तिरिक्खगदी वीइंदिय-तीइंदिय-चउरिंदिय तिण्हं जादीणमेक्कदरं ओरालिय-तेया-कम्मइयसरीरं हुंडसंठाणं ओरालियसरीरअंगोवंगं असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणं वण्ण-गंध-रस-फासं तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुव्वी अगुरुअलहुव-उवघाद परघाद-उस्सास-उज्जोवं अप्सत्थविहायगदी तस-बादर-पजत्त-पत्तेयसरीरं थिराथिराणमेक्कदरं सुभासुभाणमेक्कदरं दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज जसकित्ति-अजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिणणाम, एदासिं तदियतीसाए पयडीणमेक्कम्हि चे हाणं ॥ ६८॥
नामकर्मके तिर्यग्गति सम्बन्धी उक्त पांच बन्धस्थानोंमें यह तृतीय तीसप्रकृति बन्धस्थान हैतिर्यग्गति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय इन तीन जातियोंमेंसे कोई एक, औदारिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, असंप्राप्तासृपाटिकासंहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त प्रत्येकशरीर, स्थिर और अस्थिर इन दोनोंमेंसे कोई एक, शुभ और अशुभ इन दोनोंमेंसे कोई एक, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, यशःकीर्ति और अयशःकीर्ति इन दोनोंमेसे कोई एक तथा निर्माण नामकर्म; इन तृतीय तीस प्रकृतियोंका एक ही भावमें अवस्थान है ॥६८॥
यहां द्वीन्द्रियादि तीन जाति नामकर्म, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ और यशःकीर्ति-अयशःकीर्ति; इनके विकल्पसे चौबीस ( ३४२४२४२-२४ ) भंग होते हैं।
तिरिक्खगदिं विगलिंदिय-पज्जत्त-उज्जोवसंजुत्तं बंधमाणस्स तं मिच्छादिद्विस्स ॥
वह तृतीय तीसप्रकृतिक बन्धस्थान विकलेन्द्रिय, पर्याप्त और उद्योत नामकर्मसे संयुक्त तिर्यग्गतिको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवके होता है ॥ ६९॥
तत्थ इमं पढमऊणतीसाए ठाणं जथा पढमतीसाए भंगो, णवरि उज्जोवं वज्ज । एदासिं पढमऊणतीसाए पयडीणमेक्कम्हि चेव हाणं ॥ ७० ॥
नामकर्मके तिर्यग्गति सम्बन्धी पांच बन्धस्थानोंमेंसे यह प्रथम उनतीसप्रकृतिक बन्धस्थान है और वह प्रथम तीसप्रकृतिक बन्धस्थानके समान प्रकृतिभंगवाला है। विशेषता यह है कि यहां एक उद्योत प्रकृतिको छोड़ देना चाहिए। इन प्रथम उनतीस प्रकृतियोंका एक ही भावमें अवस्थान है।
तिरिक्खगदि पंचिंदिय-पज्जत्तसंजुत्तं बंधमाणस्स तं मिच्छादिहिस्स ॥ ७१ ॥
वह प्रथम उनतीसप्रकृतिक बन्धस्थान पंचेन्द्रिय और पर्याप्त नामकर्मसे संयुक्त तिर्यग्गतिको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवके होता है ॥ ७१ ॥
तत्थ इमं विदियएगूणतीसाए द्वाणं जथा विदियत्तीसाए भंगो, णवरि उज्जोवं वज्ज । एदासिं विदियाए ऊणतीसाए पयडीणमेक्कम्हि चेव हाणं ॥ ७२ ॥
नामकर्मके तिर्यग्गति सम्बन्धी उक्त पांच बन्धस्थानोंमें यह द्वितीय उनतीसप्रकृतिक
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