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१, ९-२, ६४ ]
जीवट्ठाण - चूलियाए ठाणसमुक्कित्तणं
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नामकर्मके उक्त आठ बन्धस्थानोमें अट्ठाईसप्रकृतिक बन्धस्थान इस प्रकार है- नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, हुण्डसंस्थान, वैक्रियिकशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुअलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, अप्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशः कीर्ति और निर्माण नामकर्म; इन अट्ठाईस प्रकृतियोंका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ६१ ॥
णिरयगई पंचिंदिय - पज्जत्तसंजुत्तं बंधमाणस्स तं मिच्छादिट्ठिस्स ।। ६२ ॥
वह अट्ठाईसप्रकृतिक बन्धस्थान पंचेन्द्रिय जाति और पर्याप्त नामकर्मसे संयुक्त नरकगतिको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टिके होता है ॥ ६२ ॥
तिरिक्खगदिणामाए पंच द्वाणाणि - तीसाए एगूणतीसार छव्वीसाए पणुवीसाए तेवीस द्वाणं चेदि ॥ ६३ ॥
तिर्यग्गति नामकर्मके पांच बन्धस्थान हैं- तीसप्रकृतिक, उनतीसप्रकृतिक, छब्बीसप्रकृतिक, पच्चीसप्रकृतिक और तेवीसप्रकृतिक बन्धस्थान ॥ ६३ ॥
तत्थ इमं पढमतीसाए ट्ठाणं- तिरिक्खगदी पंचिंदियजादी ओरालिय - तेजाकम्म यसरीरं छह संट्ठाणाणमेक्कदर ओरालियसरीरअंगोवंगं छण्हं संघडणाणमेक्कदरं वण्णगंध-रस - फासं तिरिक्खगदिपाओग्गाणुपुव्वी अगुरुवलहुअ - उवघाद - परघाद - उस्सासउज्जीवं दोन्हं विहायगदीणमेकदरं तस बादर - पज्जत्त पत्तेयसरीरं थिराथिराणमेक्कदरं सुभासुभाणमेक्कदरं सुहव - दुहवाणमेकदरं सुस्सर दुस्सराणमेकदरं आदेज्ज-अणादेज्जाणमेकदरं जसकित्ति अजसकित्तीणमेक्कदरं णिमिणणामं च । एदासिं पढमतीसाए पडणं एक्कम्हि चैव द्वाणं ॥ ६४ ॥
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नामकर्म तिर्यग्गति सम्बन्धी उक्त पांच बन्धस्थानोंमें प्रथम तीस प्रकृतियुक्त बन्धस्थान यह है - तिर्यग्गति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिकशरीर, तैजशरीर, कार्मणशरीर, छह संस्थानोंमेंसे कोई एक, औदारिकशरीरांगोपांग, छह संहननोंमेंसे कोई एक, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, उद्योत, दोनों विहायोगतियोंमेंसे कोई एक, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर और अस्थिर इन दोनोंमेंसे कोई एक शुभ और अशुभ इन दोनोंमेंसे कोई एक, सुभग और दुर्भग इन दोनोंमेंसे कोई एक, सुस्वर और दुःस्वर इन दोनोंमेंसे कोई एक, आदेय और अनादेय इन दोनोंमें से कोई एक, यशः कीर्ति और अयशःकीर्ति इन दोनोंमेंसे कोई एक और निर्माण नामकर्म; इन प्रथम तीस प्रकृतियोंका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ६४ ॥
यहां छह संस्थान, छह संहनन, दो विहायोगतियां, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुभगदुर्भग, सुखर- दुखर, आदेय - अनादेय और यशः कीर्ति - अयशःकीर्ति; इन परस्पर विरुद्ध प्रकृतियोंमेंसे
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