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२८४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ९-२, ५४ जं तं तिरिक्खाउअं कम्मं बंधमाणस्स ॥ ५४ ॥ जो वह तिर्यगायु कर्म है उसके बांधनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान है ॥५४ ॥ तं मिच्छादिहिस्स वा सासणसम्मादिहिस्स वा ॥ ५५ ॥ वह तिर्यगायुके बन्धरूप एकप्रकृतिक स्थान मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टिके होता है ।।
इसका कारण यह है कि तिर्यगायुके बन्ध योग्य परिणाम इन दोनों गुणस्थानोंमें ही पाये जाते हैं।
जं तं मणुसाउअं कम्मं बंधमाणस्स ॥ ५६ ॥ जो वह मनुष्यायु कर्म है उसके बांधनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान है ॥५६॥ तं मिच्छादिहिस्स वा सासणसम्मादिहिस्स वा असंजदसम्मादिहिस्स वा ।। ५७॥
वह मनुष्यायुके बन्धरूप एकप्रकृतिक बन्धस्थान मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टिके होता है ॥ ५७ ।।
जं तं देवाउअं कम्मं बंधमाणस्स ॥ ५८॥ जो वह देवायु कर्म है उसे बांधनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ५८ ॥
तं मिच्छादिहिस्स वा सासणसम्मादिहिस्स वा असंजदसम्मादिट्ठिस्स वा संजदासंजदस्स वा संजदस्स वा ॥ ५९॥
वह देवायुके बन्धरूप एकप्रकृतिक बन्धस्थान मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयतके होता है ॥ ५९ ॥
यहां संयत पदसे अप्रमत्त गुणस्थान तकके संयतोंको ही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि, उसके आगे किसी भी आयुका बन्ध नहीं होता है ।
___णामस्स कम्मस्स अट्ठ द्वाणाणि- एक्कत्तीसाए तीसाए एगूणतीसाए अट्ठवीसाए छव्वीसाए पणुवीसाए तेवीसाए एक्किस्से हाणं चेदि ॥ ६० ॥ .
नामकर्मके आठ बन्धस्थान हैं- इकतीसप्रकृतिक, तीसप्रकृतिक, उनतीसप्रकृतिक, अट्ठाईसप्रकृतिक, छब्बीसप्रकृतिक, पच्चीसप्रकृतिक, तेईसप्रकृतिक और एकप्रकृतिक बन्धस्थान ॥ ६० ॥
तत्थ इमं अट्ठावीसाए द्वाणं-णिरयगदी पंचिंदियजादी उब्विय-तेजा-कम्मइयसरीरं हुंडसंठाणं वेउब्बियसरीरअंगोवंगं वण्ण -गंध-रस - फासं णिरयगइपाओग्गाणुपुव्वी अगुरुअलहुअ- उवघाद - परघाद - उस्सासं अप्पसत्थविहायगई तस- बादर - पज्जत्त- पत्तेयसरीर - अथिर - असुह - दुहब - दुस्सर-अणादेज्ज-अजसकित्ति-णिमिणणामं । एदासिं अट्ठावीसाए पयडीणमेक्कम्हि चेव हाणं ॥ ६१ ॥
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