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१, ९-२, ५३ ] जीवट्ठाण-चूलियाए ठाणसमुक्त्तिणं
[ २८३ तत्थ इमं दोणं द्वाणं- माणसंजलणं वज्ज ॥४४॥
मोहनीय कर्म सम्बन्धी उक्त दस बन्धस्थानोंमें आठवें बन्धस्थानकी तीन प्रकृतियों से मानसंज्वलनको कम कर देनेपर यह दोप्रकृतिक नौवां बन्धस्थान होता है ॥ ४४ ॥
मायासंजलणं लोभसंजलणं एदासिं दोण्हं पयडीणमेक्कम्हि चेव द्वाणं बंधमाणस्स ॥४५॥
__ मायासंज्वलन और लोभसंचलन, इन दो प्रकृतियोंको बांधनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान होता है ॥ ४५ ॥ .
तं संजदस्स ॥४६॥ वह दो प्रकृतियुक्त नौवां बन्धस्थान संयतके होता है ॥ ४६॥ तत्थ इमं एक्किस्से द्वाणं- मायासंजलणं वज्ज ॥ ४७ ॥
मोहनीय कर्म सम्बन्धी उक्त दस बन्धस्थानोंमें नौवें बन्धस्थानकी दो प्रकृतियोंमेंसे मायासंचलनको कम कर देनेपर यह एक प्रकृतियुक्त दसवां बन्धस्थान होता है ॥ ४७ ॥
लोभसंजलणं एदिस्से एक्किस्से पयडीए एकम्हि चेव हाणं बंधमाणस्स ॥४८॥ लोभ संज्वलन इस एक प्रकृतिको बांधनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान होता है । तं संजदस्स ॥४९॥ वह एक प्रकृति युक्त दसवां बन्धस्थान संयतके होता है ॥ ४९॥ आउअस्स कम्मस्स चत्तारि पयडीओ ॥५०॥ आयु कर्मकी चार प्रकृतियां हैं ॥ ५० ॥ णिरयाउअंतिरिक्खाउअं मणुसाउअं देवाउअं चेदि ॥ ५१ ॥ नारकायु, तिर्यगायु, मनुष्यायु और देवायु; ये आयु कर्मकी वे चार प्रकृतियां हैं ॥५१॥ जं तं णिरयाउअं कम्मं बंधमाणस्स ॥ ५२ ॥
आयु कर्मकी चार प्रकृतियोंमें जो वह नारकायु कर्म है उसको बांधनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान है ॥ ५२ ॥
तं मिच्छादिहिस्स ॥ ५३॥ वह बन्धस्थान मिथ्यादृष्टिके होता है ॥ ५३ ॥
वह नारकायुके बन्धवाला एकप्रकृतिक बन्धस्थान मिथ्यादृष्टि जीवके ही होता है, क्योंकि, मिथ्यात्व कर्मके उदयके विना नारकायुका बन्ध नहीं होता है।
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