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२८२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं .
[१,९-२, ३५ - तत्थ इमं पचण्डं टाणं- हस्स-रदि अरदि-सोग भय दुगुंठं वज्ज ॥ ३५ ॥
मोहनीय कर्म सम्बन्धी उक्त दस स्थानोंमें पांचवें बन्धस्थानकी उक्त नौ प्रकृतियों से हास्य-रति, अरति-शोक, भय और जुगुप्साको कम कर देनेपर यह पांचप्रकृतिक छठा बन्धस्थान होता है ।।
चदसंजलणं पुरिसवेदो एदासिं पंचण्डं पयडीणमेक्कम्हि चेव द्वाणं बंधमाणस्स ॥३६॥
संज्वलन क्रोध आदि चार कषाय और पुरुषवेद, इन पांचों प्रकृतियोंको बांधनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान होता है ॥ ३६ ॥
तं संजदस्स ॥ ३७॥
वह पांचप्रकृतिक छठा बन्धस्थान प्रमत्तसंयतसे लेकर अनिवृत्तिकरण पर्यन्त संयतके होता है ॥ ३७ ॥
तत्थ इमं चदुण्णं हाण- पुरिसवेदं वज्ज ॥३८॥
मोहनीय कर्म सम्बन्धी उक्त दस बन्धस्थानोंमें छठे बन्धस्थानकी पांच प्रकृतियोंमेंसे पुरुषवेदको कम कर देनेपर यह चार प्रकृतियुक्त सांतवां बन्धस्थान होता है ॥ ३८ ॥
चदुसंजलणं एदासिं चदुण्हं पयडीणमेकम्हि चेव हाणं बंधमाणस्स ॥ ३९ ॥
संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों प्रकृतियोंको बांधनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान होता है ॥ ३९ ॥
तं संजदस्स ॥४०॥
वह चार प्रकृतियुक्त सांतवां बन्धस्थान प्रमत्तसंयतसे लेकर अनिवृत्तिकरण संयत तक होता है ॥ ४०॥
तत्थ इमं तिण्हं हाणं-कोधसंजलणं वज्ज ॥४१॥
मोहनीय कर्म सम्बन्धी उक्त दस बन्धस्थानोंमें सातवें बन्धस्थानकी उक्त चार प्रकृतियोंमेंसे संज्वलन क्रोधको कम कर देनेपर यह तीन प्रकृतियुक्त आठवां बन्धस्थान होता है ॥ ४१ ॥
___ माणसंजलणं मायासंजलणं लोभसंजलणं एदासिं तिण्हं पकडीणमेक्कम्हि चेव हाणं बंधमाणस्स ॥४२॥
मानसंज्वलन, मायासंज्वलन और लोभसंज्वलन; इन तीन प्रकृतियोंको बांधनेवाले जीवका एक ही भावमें अवस्थान होता है ॥ ४२ ॥
तं संजदस्स ॥४३॥
वह तीनप्रकृतिक आठवां बन्धस्थान प्रमत्तसंयतसे लेकर अनिवृत्तिकरण संयत तक होता है ॥ ४३ ॥
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